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उत्तराध्ययन सूत्र
एकत्व, पृथक्त्व-भिन्नत्व, संख्या, संस्थान-आकार, संयोग और विभागये पर्यायों के लक्षण हैं।
१३. एगत्तं च पुहत्तं च
संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य
पज्जवाणं तु लक्खणं॥ १४. जीवाजीवा य बन्धो य
पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो सन्तेए तहिया नव ।।
__ जीव, अजीव, बन्ध (जीव और कर्म का संश्लेष), पुण्य (शुभभाव), पाप (अशुभ भाव) आश्रव (शुभाशुभकर्म बन्ध के हेतु रागादि), संवर (आश्रवनिरोध), निर्जरा (पूर्वबद्ध कर्मों का देशक्षय) और मोक्ष (पूर्णरूप से कर्मक्षय)-ये नौ तत्त्व हैं।
इन तथ्यस्वरूप भावों के सद्भाव (अस्तित्व) के निरूपण में जो भावपूर्वक श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं।
१५. तहियाणं तु भावाणं
सब्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स
सम्मत्तं तं वियाहियं ।। १६. निसग्गुवएसरुई
आणारुई सुत्त-बीयरुइमेव। अभिगम-वित्थाररुई किरिया-संखेव-धम्मरुई॥
१७. भूयत्थेणाहिगया
जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सहसम्मुझ्यासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो॥
सम्यक्त्व के दस प्रकार हैं--- निसर्ग-रुचि, उपदेश-रुचि, आज्ञा-रुचि, सूत्र-रुचि, बीज-रुचि, अभिगम-रुचि, विस्तार-रुचि, क्रिया-रुचि, संक्षेप-रुचि और धर्म-रुचि।
(१) परोपदेश के बिना सहसंमति से अर्थात् स्वयं के ही यथार्थ बोध से अवगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और संवर आदि तत्त्वों की जो रुचि (श्रद्धा) है, वह 'निसर्ग रुचि' है।
जिन भगवान् द्वारा दृष्ट एवं उपदृश्य भावों में, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव से विशिष्ट पदार्थों के विषय में—'यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है'-ऐसी जो स्वत: स्फूर्त श्रद्धा है, वह 'निसर्ग रुचि' है।
जो जिणदिवे भावे चउविहे सद्दहाइ सयमेव। एमेव नऽन्नह त्ति य निसग्गरुइ ति नायव्वो॥
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