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________________ २८४ उत्तराध्ययन सूत्र वह बीच में ही बोलने लगता है, आचार्य के वचन में दोष निकालता है। तथा बार-बार उनके वचनों के प्रतिकूल आचरण करता है। ११. सो वि अन्तरभासिल्लो दोसमेव पकुव्वई। आयरियाणं तं वयणं पडिकूलेइ अभिक्खणं। १२. न सा ममं वियाणाइ न वि सा मज्झ दाहिई। निग्गया होहिई मन्ने साहू अन्नोऽत्थ वच्चउ ।। १३. पेसिया पलिउंचन्ति ते परियन्ति समन्तओ। रायवेटिं व मन्नन्ता करेन्ति भिउडि मुहे ।। भिक्षा लाने के समय कोई शिष्य गृहस्वामिनी के सम्बन्ध में कहता हैवह मुझे नहीं जानती है, वह मुझे नहीं देगी। मैं मानता हूँ-वह घर से बाहर गई होगी, अत: इसके लिए कोई दूसरा साधु चला जाए। किसी प्रयोजन विशेष से भेजने पर वे बिना कार्य किए लौट आते हैं और अपलाप करते हैं। इधर-उधर घूमते हैं। गुरु की आज्ञा को राजा के द्वारा ली जाने वाली वेष्टि–बेगार की तरह मानकर मुख पर भृकुटि तान लेते १४. वाइया संगहिया चेव भत्तपाणे य पोसिया। जायपक्खा जहा हंसा पक्कमन्ति दिसोदिसिं॥ १५. अह सारही विचिन्तेइ खलुंकेहिं समागओ। किं मज्झ दुट्ठसीसेहि अप्पा मे अवसीयई। जैसे पंख आने पर हंस विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं, वैसे ही शिक्षित एवं दीक्षित किए गए, भक्त-पान से पोषित किए गए कुशिष्य भी अन्यत्र चले जाते हैं। अविनीत शिष्यों से खिन्न होकर धर्मयान के सारथी आचार्य सोचते हैं- "मुझे इन दुष्ट शिष्यों से क्या लाभ? इनसे तो मेरी आत्मा अवसन्नव्याकुल ही होती है।” "जैसे गलिगर्दभ अर्थात् आलसी निकम्मे गधे होते हैं, वैसे ही ये मेरे शिष्य हैं।" यह विचार कर गर्गाचार्य गलिगर्दभरूप शिष्यों को छोड़कर दृढ़ता से तपसाधना में लग गए। १६. जारिसा मम सीसाउ तारिसा गलिगदहा। गलिगद्दहे चइत्ताणं दढं परिगिण्हइ तवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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