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उत्तराध्ययन की उक्त चर्चा पर से हम इस द्वन्द्व का कुछ समाधान पाएँ । शास्त्रों के नाम पर आए दिन नित नये बढ़ते झगड़े समाप्त करें।
मानव कहीं भी और कैसे भी रहे। कोई न कोई वेषभषा तो होगी ही। सामाजिक ही नहीं, धार्मिक जीवन में भी वेष का कुछ अर्थ है। परन्तु द्वन्द्व तब पैदा होता है, जब देश कालानुसार उसमें कुछ बदलाव आता है। और वह आना भी चाहिए। लोक जीवन बहता पानी है। काल के साथ वह भी बहता रहता है। तलैया का पानी बहता नहीं है, अत: वह सड़ता है। भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर के संघों में जब नए पुराने धर्मलिंग का, वेषभूषा का प्रश्न उठा, तो गणधर गौतम बहुत स्पष्ट समाधान करते हैं। उनकी दृष्टि में धार्मिक वेष कोई भी हो, देशकालानुसार वह कितना ही और कैसा ही बदले, उसका प्रयोजन लोक तक ही है, आगे नहीं। 'लोगे लिंगप्पओयणं ।'२३ वेष और वेष से सम्बन्धित आचार-व्यवहार लोकप्रतीति के लिए विकल्पित किए हैं, ये तात्त्विक नहीं हैं, शाश्वत तो बिल्कुल भी नहीं। 'पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं ।'२४ निश्चय में—मुक्ति के सद्भूत साधनर५ सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही हैं, वेष आदि नहीं।
उत्तराध्ययन ने जातिवाद पर भी करारी चोटें की हैं। वह जन्म से श्रेष्ठता नहीं, कर्म से श्रेष्ठता मानता है। वह जन्म से नहीं, कर्म से ब्राह्मण होने की बात कहता है—'कम्मुणा बंभणो होइ।२६ यज्ञीय अध्ययन में यज्ञ की और यायाजी ब्राह्मण की सत्कर्म-प्रधान बड़ी मौलिक व्याख्या की है। हरिकेश बल श्वपाक पुत्र को देव-पूजित बताया है। उसका स्पष्ट उद्घोष है-'सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई।२७ साधना की विशेषता है, जाति की विशेषता नहीं।
आज के इस युग में भी ये क्रान्ति के अपराजित स्वर कितने अप्रेक्षित हैं, यह आज के समाजशास्त्रियों और राष्ट्र नेताओं से पूछो।
उत्तराध्ययन का महत्त्व उत्तराध्ययन का महत्त्व जैन वाङ्मय में सर्वविदित है। नाम से ही यह अध्ययन उत्तर अर्थात् उत्तम अध्ययन है। यह वह आध्यात्मक भोजन है, जो कभी वासी नहीं होता। यह जीवन के दुखते अंगों को सीधा स्पर्श करता है। वस्तुत: वह जीवनदर्शन है, जीवनसूत्र है। एक प्राचीन मनीषी के शब्दों में यह कह दिया
२३. , , २३।३२ २४. , , २३।३२ २५. , , २३।३३ २६. , , २५१३१ २७. , , १२३७
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