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________________ ( १० ) जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी कि 'यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ।' यहाँ लोकनीति है, सामाजिक शिष्टाचार है, अनुशासन है, अध्यात्म है, वैराग्य है, इतिहास है, पुराण है, कथा है, दृष्टान्त है, और तत्त्वज्ञान है। यह गढ भी है और सरल भी। अन्तर्जगत् का मनोविश्लेषण भी है, और बाह्य जगत् की रूपरेखा भी। अपनापन क्या है, यह जानना हो तो उत्तराध्ययन से जाना जा सकता है। उत्तराध्ययन जीवन की सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत करता है। एक विद्वान् के शब्दों में जैन जगत् का यह गीता दर्शन है। यही कारण है, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा लोक भाषाओं में आज तक जितनी टीकाएँ, उपटीकाएँ, अनुवाद आदि उत्तराध्ययन पर प्रस्तुत किए गए हैं, उतने और किसी आगम पर नहीं । चिर अतीत में नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु स्वामी से लेकर आज तक व्याख्याओं का प्रवाह अजस्रगति से बहता ही आ रहा है। प्रस्तुतं संस्करण उत्तराध्ययन के संस्करण और भी कई प्रकाशित हुए हैं। अनुवाद और भी कई लिखे गए हैं। परन्तु यह संस्करण अपनी एक अलग ही विशेषता रखता है। शुद्ध मूल पाठ है । वह यथास्थान पदच्छेद एवं विराम आदि से सुसज्जित कर ऐसा लिखा गया है, यदि थोड़ा-सा भी लक्ष्य दिया जाए तो मूल पर से ही काफी अर्थबोध हो सकता है। अनुवाद भी वैज्ञानिक शैली का है, जो मूल को सीधा स्पर्श करता है। टिप्पण भी भावोद्घाटन की दृष्टि से शानदार हैं। न अधिक विस्तार है, न संक्षेप। काफी अच्छा है, जो भी और जितना भी है। उक्त संस्करण की सम्पादिका श्री चन्दना जी वस्तुत: श्री चन्दना हैं। उनका अध्ययन विस्तृत है, चिन्तन गहरा है । प्रज्ञात तत्त्व के प्रति निष्ठा उनकी अविचल है। उसके लिए वे कभी-कभी तो इतनी स्पष्टता पर उतर आती हैं कि आलोचना की शिकार हो जाती हैं। परन्तु अपने में वे इतनी साफ हैं, यदि कोई पूर्वाग्रह और पक्ष-विशेष से मुक्त होकर उन्हें देखे तो उनकी वाणी में ओज है, एक सहज आकर्षण । जटिल से जटिल प्रतिपाद्य को भी वे बड़ी सहज सरलता के साथ श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में उतार देती हैं। वे प्रवचन के साथ अच्छी लेखिका भी हैं। उनके द्वारा प्राकृत व्याकरण, तत्वार्थसूत्र सानुवाद, हमारा इतिहास आदि कई रचनाएँ रूपाकार ले चुकी हैं । उत्तराध्ययन का प्रस्तुत संपादन भी उसी श्रृंखला की एक कड़ी है। पर इस की अपनी एक अलग विशेषता है। जहाँ तक मुझे मालूम है, सम्भवत: यह पहली साध्वी हैं, जो आगमसम्पादन के गहन एवं दुर्गम पथ पर अग्रसर हुई हैं। बहुत जल्दी में लिखा है उन्होंने, जैसा कि सुना गया है, यदि वे कुछ और समय लेतीं तो निश्चित ही कुछ और भी अधिक सुन्दर प्रस्तुत कर पातीं। प्रतिभा की कमी नहीं है उनके पास । कमी है केवल समय की और समय पर कलम उठाने के उत्स की। ___ मैं आशा करता हूँ, प्रस्तुत संस्करण से अनेक धर्मजिज्ञासुओं को परितृप्ति मिलेगी। उनके विचार और आचार-दोनों ही पक्ष प्रशस्त होंगे। तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर की पुण्यस्मृति में उनकी ओर से प्रभु की ही दिव्य वाणी का यह सुन्दर मंगलमय उपहार सादर स्वीकृत है । धन्यवाद ! * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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