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________________ २६४ उत्तराध्ययन सूत्र ३४. एए पाउकरे बुद्धे जेहिं होइ सिणायओ। सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं॥ ___“अर्हत के इन तत्त्वों का प्ररूपण किया है। इनके द्वारा जो साधक स्नातक-पूर्ण होता है, सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" -इस प्रकार जो गुण-सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं।" ३५. एवं गुणसमाउत्ता जे भवन्ति दिउत्तमा। ते समत्था उ उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य॥ ३६. एवं तु संसए छिन्ने विजयघोसे य माहणे। समुदाय तयं तं तु जयघोसं महामुणिं ॥ ३७. तुढे य विजयघोसे इणमुदाहु कयंजली। माहणत्तं जहाभूयं सुट्ट मे उवदंसियं॥ ३८. तुब्भे जइया जन्नाणं तुम्भे वेयविऊ विऊ। - जोइसंगविऊ तुब्भे तुब्भे धम्माण पारगा। ३९. तुब्भे समत्था उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य। तमणुग्गहं करेहऽम्हं भिक्खेण भिक्खु उत्तमा॥ इस प्रकार संशय मिट जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने महामुनि जयघोष की वाणी को सम्यक्रूप से स्वीकार किया। - संतुष्ट हुए विजयघोष ने हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा -“तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा उपदेश दिया है।" विजयघोष ब्राह्मण -“तुम यज्ञों के यष्टा–यज्ञ-कर्ता हो, तुम वेदों को जानने वाले विद्वान हो, तुम ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हो, तुम्हीं धर्मों के पारगामी हो।" -"तुम अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हो। अत: भिक्षुश्रेष्ठ ! भिक्षा स्वीकार कर हम पर अनुग्रह करो।” __ जयघोष मुनि - "मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है। हे द्विज! शीघ्र ही अभिनिष्क्रमण कर अर्थात् श्रमणत्व स्वीकार कर। ताकि भय के आवर्ती वाले संसार सागर में तुझे भ्रमण न करना पड़े।" ४०. न कज्जं मज्झ भिक्खण खिप्पं निक्खमसू दिया। मा भमिहिसि भयावद्दे घोरे संसार-सागरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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