________________
२६५
२५-यज्ञीय ४१. उवलेवो होइ भोगेसु
अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे अभोगी विष्पमुच्चई॥
-“भोगों में कर्म का उपलेप होता है। अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता है। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी उससे विप्रमुक्त हो जाता
-"एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके गये। वे दोनों दीवार पर गिरे। जो गीला था, वह वहीं चिपक गया।"
उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुड्डे
जो उल्लो सो तत्थ लग्गई। ४३. एवं लग्गन्ति दुम्मेहा
जे नरा कामलालसा। विरत्ता उ न लग्गन्ति जहा सुक्को उ गोलओ॥
-"इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और काम-भोगों में आसक्त हैं, वे विषयों में चिपक जाते हैं। विरक्त साधक सूखे गोले की भाँति नहीं लगते
४४. एवं से विजयघोसे
जयघोसस्स अन्तिए। अणगारस्स निक्खन्तो
धम्मं सोच्चा अणुत्तरं ॥ ४५. खवित्ता पुनकम्माई
संजमेण तवेण य। जयघोस-विजयघोसा सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ॥
-त्ति बेमि।
उपसंहार
इस प्रकार विजयघोष, जयघोष अनगार के समीप, अनुत्तर धर्म को सुनकर दीक्षित हो गया। ___ जयघोष और विजयघोष ने संयम
और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
*****
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org