________________
२५-यज्ञीय
२६१
१३. तस्सऽक्खेवपमोक्खं च
अचयन्तो तर्हि दिओ। सपरिसो पंजली होउं पुच्छई तं महामुणिं ।।
१४. वेयाणं च मुहं नहि
बूहि जनाण जं मुहं। नक्खत्ताण मुहं ब्रूहि बहि धम्माण वा मुहं ॥
१५. जे समस्या समुद्धा
परं अप्पाणमेव य। एयं मे संसयं सव्वं साहू ! कहसु पुच्छिओ॥
१६. अग्गिहोत्तमुहा वेया
जनही वेयसां मुहं। नक्खत्ताण मुहं चन्दो
धम्माणं कासवो मुहं ।। १७. जहा चंदं गहाईया
चिट्ठन्ती पंजलीउडा। वन्दमाणा नमसन्ता उत्तमं मणहारिणो।
उसके आक्षेपों का--प्रश्नों का प्रमोक्ष अर्थात् उत्तर देने में असमर्थ ब्राह्मण ने अपनी समग्र परिषदा के साथ हाथ जोड़कर उस महामुनि से पूछा
विजयघोष ब्राह्मण
-“तुम कहो-वेदों का मुख क्या है ? यज्ञों का जो मुख है, वह बतलाओ। नक्षत्रों का मुख बताइए
और धर्मों का जो मुख है, उसे भी कहिए।"
—“और अपना तथा दूसरों का उद्धार करने में जो समर्थ हैं, वे भी बतलाओ। मुझे यह सब संशय है। साधु ! मैं पूछता हूँ, आप बताइए।"
जयघोष मुनि
-"वेदों का मुख अग्नि-होत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र है और धर्मों का मुख काश्यप (ऋषभदेव) है।"
-"जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चन्द्र की वन्दना तथा नमस्कार करते हुए स्थित हैं, वैसे ही भगवान् ऋषभदेव हैं, उनके समक्ष भी जनता विनयावनत है।"
-विद्या ब्राह्मण की सम्पदा है, यज्ञवादी इससे अनभिज्ञ हैं, वे बाहर में स्वाध्याय और तप से वैसे ही आच्छादित हैं, जैसे कि अग्नि राख से ढंकी हुई होती है।"
-"जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है, उसे हम ब्राह्मण कहते
१८. अजाणगा जन्नवाई
विज्जा माहणसंपया। गूढ़ा सज्झायतवसा भासच्छन्ना इवऽग्गिणो॥
१९. जे लोए बम्भणों वत्तो
अग्गी वा महिओ जहा। सया कुसलसंदिटुं तं वयं बूम माहणं॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org