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उत्तराध्ययन सूत्र
यज्ञकर्ता ब्राह्मण भिक्षा के लिए उपस्थित हुए मुनि को इन्कार करता है--“मैं तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा। भिक्षु ! अन्यत्र याचना करो।"
जो वेदों के ज्ञाता विप्र-ब्राह्मण हैं, यज्ञ करने वाले द्विज हैं, और ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हैं एवं धर्मशास्त्रों के पारगामी हैं---
६. समुवट्ठियं तहिं सन्तं
जायगो पडिसेहए। न हु दाहामि ते भिक्खं भिक्खू! जायाहि अन्नओ॥ जे य वेयविऊ विप्पा जन्नट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य
जे य धम्माण पारगा।। ८. जे समत्था समुद्धत्तुं
परं अप्पाणमेव य। तेसिं अनमिणं देयं भो भिक्खू ! सव्वकामियं ।। सो एवं तत्थ पडिसिद्धो जायगेण महामुणी। न वि रुट्ठो न वि तुट्ठो
उत्तमट्ठ-गवेसओ॥ १०. अन्नटुं पाणहेउं वा
न वि निव्वाहणाय वा। तेसिं विमोक्खणटाए इमं वयणमब्बवी॥
-“जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, भिक्षु ! यह सर्वकामिक–सर्वरसयुक्त एवं सब को अभीष्ट अन्न उन्हीं को देना है।"
वहाँ इस प्रकार याजक के द्वारा इन्कार किए जाने पर उत्तम अर्थ की खोज करने वाला वह महामुनि न क्रुद्ध हुआ, न प्रसन्न हुआ।
११. न वि जाणासि वेयमुहं
न वि जन्नाण जं मुहं। नक्खत्ताण मुहं जं च जं च धम्माण वा मुहं ।। जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य। न ते तुमं वियाणासि अह जाणासि तो भण॥
न अन्न के लिए, न जल के लिए, न जीवन-निर्वाह के लिए, किन्तु उनके विमोक्षण (मुक्ति) के लिए मुनि ने इस प्रकार कहा
जयघोष मुनि
-"तू वेद के मुख को नहीं जानता है, और न यज्ञों का जो मुख है, नक्षत्रों का जो मुख है और धर्मों का जो मुख है, उसे ही जानता है।" ___-“जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हें भी तू नहीं जानता है। यदि जानता है, तो बता।"
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