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________________ २५ यज्ञीय वस्तुत: जाति का सम्बन्ध हमारे द्वारा आचरित कर्म से है। जाति की परिकल्पना केवल हमारी सामाजिक व्यवस्था है। भारतवर्ष के धार्मिक इतिहास का प्रथम अध्याय यज्ञ और पूजा से प्रारम्भ होता है। भगवान महावीर के समय तक इस विचारधारा का सर्वव्यापक और गहरा प्रभुत्व छा गया था। विद्वान् ब्राह्मण प्राय: इसी कार्य में लगे रहते थे। भगवान् महावीर और उनके साधुओं ने जनता को वास्तविक यज्ञ क्या है, सच्चा ब्राह्मण कौन होता है, इस विषय में ठीक तरह समझाया था। इस अध्ययन में ऐसे ही एक प्रसंग का उल्लेख है। . वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष दो भाई थे। वे काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे, वेदों के ज्ञाता थे। एक बार जयघोष गंगा नदी में स्नान के लिए गया। वहाँ उसने एक सर्प को मेंढक निगलते हुए देखा। इतने में एक कुरर पक्षी आया, उसने साँप को पकड़ा। साँप मेंढक को निगल रहा है और कुरर साँप को। इस दृश्य को देखकर जयघोष विरक्त हो गया। वह जैन साधु बन गया। एक बार जयघोष वाराणसी में भिक्षा की खोज में निकले । वे भ्रमण करते हुए उसी यज्ञ-मण्डप में पहुँच गए, जहाँ विजयघोष अनेक ब्राह्मणों के साथ यज्ञ कर रहा था। उग्र तप के कारण जयघोष का शरीर बहुत कृश-क्षीण हो गया था। विजयघोष ने उसे बिल्कुल भी नहीं पहचाना । जयघोष ने भिक्षा की याचना की, किन्तु विजयघोष ने इन्कार कर दिया। जयघोष को इन्कार से दु:ख नहीं हुआ। वह पूर्णरूप से शान्त रहा। परिबोध के भाव से उसने विजयघोष को कहा—“भिक्षा दो, इसलिए मैं तुम्हें कुछ नहीं कह रहा हूँ। मुझे तुम्हारी भिक्षा से २५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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