________________
२४२
उत्तराध्ययन सूत्र
४६. तं लयं सव्वसो छित्ता
उद्धरित्ता समूलियं । विहरामि जहानायं मुक्को मि विसभक्खणं॥
४७. लया य इइ का वुत्ता?
केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी॥
भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया। तमुद्धरित्तु जहानायं विहरामि महामुणी! ।।
गणधर गौतम---
-“उस लता को सर्वथा काट कर एवं जड़ से उखाड़ कर नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। अत: मैं विष-फल खाने से मुक्त हूँ।"
केशीकुमार श्रमण
—“वह लता कौन-सी है?" केशी ने गौतम को कहा।
केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा
गणधर गौतम
- "भवतृष्णा ही भयंकर लता है। उसके भयंकर परिपाक वाले फल लगते हैं। हे महामुने ! उसे जड़ से उखाड़कर में नीति के अनुसार विचरण करता हूँ।"
केशीकुमार श्रमण
-"गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह संदेह दूर किया। मेरा एक और संदेह है। गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें।”
____घोर प्रचण्ड अग्नियाँ प्रज्वलित हैं। वे शरीरस्थों—जीवों को जलाती हैं। उन्हें तुमने कैसे बुझाया?"
४९. साहु गोयम! पन्ना ते
छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मझं
तं मे कहसु गोयमा!॥ ५०. संपज्जलिया घोरा
अग्गी चिट्ठइ गोयमा!। जे डहन्ति सरीरत्था कहं विज्झाविया तुमे?।।
५१.
महामेहप्पसूयाओ गिज्झ वारि जलुत्तमं। सिंचामि सययं देहं सित्ता नो व डहन्ति मे॥
गणधर गौतम
-"महामेघ से प्रसूत पवित्र-जल को लेकर मैं उन अग्नियों का निरन्तर सिंचन करता हूँ। अत: सिंचन की गई अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती हैं।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org