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२३ - केशि - गौतमीय
४०. दीसन्ति बहवे लोए पासबद्धा सरीरिणो । मुक्कपासो लहुब्भूओ कहं तं विहरसी मुणी ||
४९. ते पासे सव्वसो छित्ता निहन्तूण उवायओ / मुक्कपासो लहुब्भूओ विहरामि अहं मुणी ! |
४२. पासा य इइ के वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी ।
केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ॥
४३. रागद्दोसादओ तिव्वा नेहपासा भयंकरा । ते छिन्दित्तु जहानायं विहरामि जहक्कमं ।
४४. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मज्झं तं कहसु गोमा ! ॥ ४५. अन्तोहियय संभूया लया चिट्ठड़ गोयमा ! । फलेइ विसभक्खीणि सा उ उद्धरिया कहं ? ॥
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-" इस संसार में बहुत से जीव पाश से बद्ध हैं । मुने! तुम बन्धन से मुक्त और लघुभूत-—- प्रतिबन्धरहित हल्के होकर कैसे विचरण करते हो ?”
गणधर गौतम
“मुने ! उन बन्धनों को सब प्रकार से काट कर, उपायों से विनष्ट कर मैं बन्धनमुक्त और हलका होकर विचरण करता हूँ ।"
केशीकुमार श्रमण
- " गौतम ! वे बन्धन कौनसे
"
हैं ? ” केशी ने गौतम को पूछा । केशी के पूछने पर गौतम ने इस प्रकार
कहा
गणधर गौतम
- " तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह ) भयंकर बन्धन हैं। उन्हें काट कर धर्मनीति एवं आचार के अनुसार मैं विचरण करता हूँ ।"
केशीकुमार श्रमण
- " गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह संदेह दूर किया । मेरा एक और भी संदेह है, गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें ।”
- " गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न एक लता है । उसको विष- तुल्य फल लगते हैं । उसे तुमने कैसे उखाड़ा ? "
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