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________________ २३ - केशि - गौतमीय २७. पुरिमाणं दव्विसोज्झो उ चरिमाणं दुरणुपालओ । कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोझो सुपालओ || २८. साहु गोयम ! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो । अन्तो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।। २९. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा । ३०. एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं ? | लिंगे दुविहे मेहावि । कहं विप्पच्चओ न ते ? ॥ ३१. केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो दमब्बवी । विन्नाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छ्रियं ॥ ३२. पच्चयत्थं च लोगस्स नाणविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पओयणं ॥ Jain Education International २३९ -" प्रथम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प- -आचार को यथावत् ग्रहण कर ना कठिन है । अन्तिम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका पालन करना कठिन है । मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका पालन करना सरल है ।" केशीकुमार श्रमण - - " गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर कर दिया । मेरा एक और भी संदेह है गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें ।” I - "यह अचेलक धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर (वर्णादि से विशिष्ट एवं मूल्यवान् वस्त्र वाला) धर्म महायशस्वी पार्श्व ने प्रतिपादन किया है ।" - " एक ही कार्य — उद्देश्य से प्रवृत्त दोनों में भेद का कारण क्या है ? मेधावी ! लिंग के इन दो प्रकारों में तुम्हें कैसे संशय नहीं होता है ?" शी के यह कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा – “विज्ञान सेविशिष्ट ज्ञान से अच्छी तरह धर्म के साधनों— उपकरणों को जानकर ही उनकी सहमति दी गई है । " गणधर गौतम - " नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना लोगों की प्रतीति के लिए है । संयमयात्रा के निर्वाह के लिए, और 'मैं साधु हूँ - यथाप्रसंग इसका बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग का प्रयोजन है ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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