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२०. देव दाणव गन्धव्वा क्ख- रक्खस- किन्नरा । अदिस्साणं च भूयाणं आसी तत्थ समागमो ॥
२१. पुच्छामि ते महाभाग ! केसी गोयमब्बवी । तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी |
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२२. पुच्छ भन्ते ! जहिच्छं ते केसिं गोयममब्बवी । तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इणमब्बवी ॥ २३. चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी ॥
२४. एगकज्जपवन्नाणं
२५.
विसेसे किं नु कारणं ? । धम्मे दुविहे मेहावि ! कहं विप्पच्चओ न ते ? ॥
तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी । पन्ना समिक्ख धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं ॥
२६. पुरिमा उज्जुजडा उ
कडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपन्ना य तेण धम्मे दुहा कए ।
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उत्तराध्ययन सूत्र
देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहाँ एक तरह से समागम — मेला सा हो गया
था ।
केशी ने गौतम से कहा“ महाभाग ! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ । ” केशी के यह कहने पर गौतम ने कहा
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-" भन्ते ! जैसी भी इच्छा हो ।
पूछिए।"
तदनन्तर अनुज्ञा पाकर केशी ने गौतम को इस प्रकार कहा
- " यह चतुर्याम धर्म है । इसका महामुनि पार्श्वनाथ ने प्रतिपादन किया है । यह जो पंच - शिक्षात्मक धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्द्धमान ने किया है ।"
-" मेधाविन् ! एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं, तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? इन दो प्रकार के धर्मों में तुम्हें विप्रत्यय - सन्देह कैसे नहीं होता ?"
केशी के कहने पर गौतम ने इस
प्रकार कहा-
- " तत्त्व का निर्णय जिसमें होता है, ऐसे धर्मतत्त्व की समीक्षा प्रज्ञा करती है । "
- " प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। अतः धर्म दो प्रकार से कहा है । "
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