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२३–केशि-गौतमीय १३. अचेलगो य जो धम्मो
जो इमो सन्तरुत्तरो। एगकज्ज - पवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं? ॥
१४. अह ते तत्थ सीसाणं
विनाय पवितक्कियं । समागमे . कयमई उभयो केसि-गोयमा ।। गोयमे पडिरूवन्नू सीससंघ - समाउले। जेटुं कुलमवेक्खन्तो
तिन्दुयं वणमागओ॥ १६. केसीकुमार - समणे
गोयम दिस्समागयं। पडिरूवं पडिवत्ति सम्मं संपडिवज्जई॥ पलालं फासुयं तत्थ पंचमं कुसतणाणि य। गोयमस्स निसेज्जाए खिप्पं संपणामए । केसीकुमार - समणे गोयमे य महायसे। उभओ निसण्णा सोहन्ति
चन्द - सूर - समप्पभा ।। १९. समागया बह तत्थ
पासण्डा कोउगा मिगा। गिहत्थाणं अणेगाओ साहस्सीओ समागया।
-"यह अचेलक (अवस्त्र) धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर (सान्तर-वर्ण आदि से विशिष्ट तथा उत्तर—मूल्यवान् वस्त्र वाला) धर्म पार्श्वनाथ ने प्ररूपित किया है। एक ही कार्य-लक्ष्य से प्रवृत्त दोनों में इस विशेष भेद का क्या कारण है?"
केशी और गौतम दोनों ने ही शिष्यों के प्रवितर्कित-शंकायुक्त विचार विमर्श को जानकर परस्पर मिलने का विचार किया।
केशी श्रमण के कुल को जेष्ठ कुल जानकर प्रतिरूपज्ञ-यथोचित विनय व्यवहार के ज्ञाता गौतम शिष्यसंघ के साथ तिन्दुक वन में आए।
गौतम को आते हुए देखकर केशी कुमार श्रमण ने उनकी सम्यक् प्रकार से प्रतिरूप प्रतिपत्ति-योग्य आदरसत्कार किया।
गौतम को बैठने के लिए शीघ्र ही उन्होंने प्रासुक पयाल (बीहि आदि चार प्रकार के धानों के पयाल-डंठल) और पाँचवाँ कुश-तृण समर्पित किया।
श्रमण केशीकुमार और महान् यशस्वी गौतम–दोनों बैठे हुए चन्द्र और सूर्य की तरह सुशोभित हो रहे थे।
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कौतूहल की अबोध दृष्टि से वहाँ दूसरे सम्प्रदायों के बहुत से पाषण्ड-परिव्राजक आए और अनेक सहस्र गृहस्थ भी।
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