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करले । दूसरों के दोष न देखो। ज्ञान प्राप्त कर नम्र बनो। खाने-पीने की मात्रा का यथोचित भान रखना चाहिए। बुरे के साथ बुरा होना, बचकानापन है। आज नहीं, तो कल मिलेगा? आज के अलाभ से ही निराशा क्यों? मन में दीनता न आने दो।"
उत्तराध्ययन का बन्धनमुक्ति-सन्देश मानव में कामना का द्वन्द्व सबसे बड़ा द्वन्द्व है। यह वह द्वन्द्व है, जो कभी कुछ आगे बढ़ जाता है तो मानव को पशु बना देता है, विक्षिप्त और पागल भी। इसके लिए उत्तराध्ययन में वैराग्य की जो धारा प्रवाहित है, ब्रह्मचर्यसमाधि स्थान आदि अध्ययनों में जो व्यावहारिक एवं मौलिक चिन्तन है, उस का अक्षर-अक्षर ऐसा है, जो वासना के चिरबद्ध जाल को, यदि निष्ठा के साथ सक्रियता हो तो कुछ ही समय में तोड़ कर फेंका जा सकता है । अपेक्षा है साधना की। उत्तराध्ययन की दृष्टि में वासना एक असमाधि है, प्रतिपक्ष में ब्रह्मचर्य समाधि ही उसका समुचित उत्तर है। उसके लिए साधक को कब, कैसे सतर्क एवं सजग रहना है, यह उत्तराध्ययन के १६ और ३२ वें अध्ययनों से अच्छी तरह जाना जा सकता
उत्तराध्ययन के आध्यात्मिक उद्घोष उत्तराध्ययन आध्यात्मिक शास्त्र है। वह जीवन की उलझी गुत्थियों को अन्दर में सुलझता है। बाहर में जो भी द्वन्द्व, विग्रह या संघर्ष नजर में आते हैं, उनके मूल अन्दर में हैं। अत: विष-वृक्ष के कुछ पत्ते नोंच लेने में समस्या का सही समाधान नहीं है । विष-वृक्ष के तो मूल को ही उखाड़ना होगा। और वह मूल है प्राणी के अन्तर्मन का राग-द्वेष । इसीलिए उत्तराध्ययन कहता है-'शब्द, रूप, गन्ध, रस आदि का कोई अपराध नहीं है। असली समस्या उस मन की है, जो मनोज्ञ से राग और अमनोज्ञ से द्वेष करने लगता है। शब्दादि से नहीं, मोह से ही विकृति जन्म लेती है। जो साधक सम है, मनोज्ञ और अनमोज्ञ की द्वन्द्वात्मक स्थिति में भी समभाव रख लेता है, राग-द्वेष नहीं करता है, वह संसार में रहता हुआ भी उससे वैसे ही लिप्त नहीं होता है, जैसे जल में रहता हुआ भी कमल का पत्ता जल से लिप्त आर्द्र नहीं होता है ।१२
१०. 'न किंचि रूवं अवरज्झई से'-३२१२५ ११. 'सो तेसु मोहा विगई उवेइ'-३२।१०२ १२. 'न लिप्पए भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं'-३२।३४
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