SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरी वाचना आचार्य स्कन्दिल के समय में मथुरा में हुई। माथुरी वाचना के नाम से प्रसिद्ध यह वाचना भी १२ वर्ष के भीषण दुष्काल के बाद ही हुई थी। आचार्य स्कन्दिल का पट्टधर काल मुनि श्री कल्याण विजयजी के मतानुसार, वीर निर्वाण सं० ८२७ से ८४० तक है। आचार्य स्कन्दिल के समय में ही दूसरी वाचना, आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में, सौराष्ट्र प्रदेश के बलभी नगर में हुई। तीसरी वाचना भगवान् महावीर के निर्वाण से ९८० अथवा ९९३ वर्ष के लगभग देवर्द्धिगणी के नेतृत्व में बलभी नगर में हुई। अन्त: यह बालभी वाचना के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम की दो वाचनाओं में आगमों को स्मृति-अनुसार केवल मौखिक-रूप से व्यवस्थित ही किया गया था, उन्हें लिखा नहीं गया था। देवर्द्धिगणी ने ही सर्वप्रथम आगमों को लिखा, पुस्तकारूढ किया। स्मृति पर आधारित शास्त्रों में हेर-फेर होने की जितनी अधिक संभावना है, उतनी लिखित होने पर नहीं रहती। अत: लिखित रूप में आगमों की व्यवस्थित सुरक्षा का यह महाप्रयत्न जैन इतिहास में चिर अभिनन्दनीय रहेगा। वर्तमान में आगमों का जो रूप है, वह अधिकांशत: देवर्द्धिगणी के द्वारा व्यवस्थित किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र का परम्परागत वर्तमान में उपलब्ध संस्करण भी देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की बालभी वाचना का ही कृपा-फल है। उत्तराध्ययन के व्यावहारिक जीवन प्रयोग उत्तराध्ययन का प्रारम्भ विनय से होता है। विनय अर्थात् शिष्टाचार । गुरुजनों का, अभिभावकों का अनुशासन जीवन में कितना निर्माणकारी है, यह प्रथम अध्ययन में ही मालूम हो जाता है। कैसे बोलना, कैसे बैठना, कैसे खड़े होना, कैसे सीखना-समझना—इत्यादि छोटी-छोटी बातों की भी काफी गंभीरता के साथ चर्चा की गई है, जैसे कि कोई अनुभवी वृद्ध नन्हे बालक को कुछ बता रहा हो । वस्तुत: जीवन-निर्माण की ये पहली सीढ़ियाँ हैं । इनको पार किए बिना ऊपर की मंजिल में कोई कैसे पहुँच सकेगा। आज जो हम विग्रह, कलह और द्वन्द्व परिवार में, समाज में और राष्ट्र में देख रहे हैं, यदि उत्तराध्ययन के प्रथम के दो, तीन अध्ययन ही निष्ठा के साथ जीवन में उतार लें, तो धरती पर जीते जी ही स्वर्ग उतर आए। देखिए, उक्त अध्ययनों में कितना सुन्दर कहा है-“बहुत नहीं बोलना चाहिए। किए को किया कहो और न किए को न किया। गलिताश्व (दुष्ट या दुर्बल घोड़ा) जैसे बार-बार चाबुक की मार खाता है, ऐसे बार-बार किसी के कुछ कहते रहने और सुनने की आदत मत डालो। समय पर समय (समयोचित कर्तव्य) का आचरण करना चाहिए। दूसरों पर तो क्या, अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो। गलती को छिपाओ नहीं। बिना बुलाए किसी के बीच में न बोलो। दूसरे दमन करें, इससे तो अच्छा है कि व्यक्ति स्वयं ही स्वयं को अनुशासित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy