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________________ भी कोई महत्त्व न देते थे। उनका लक्ष्य अर्थ था, शब्द नहीं। यही कारण है कि जहाँ ब्राह्मण वेद के शब्दों को नित्य मानता रहा है, वहाँ श्रमण आगमों के शब्दों को अनित्य मानकर चला है। वेदों में शब्दपाठ पहले हैं, अर्थ बाद में है। श्रमणों के यहाँ अर्थ पहले है, शब्दपाठ बाद में है। डा० हरिश्चन्द्र जैन ने 'अंगशास्त्र के अनुसार मानव व्यक्तित्व का विकास' नामक अपने शोध ग्रन्थ में ठीक ही लिखा है कि "ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन सर्वस्व था, किन्तु जैन श्रमण के लिए आचार ही सर्वस्व है। अतएव कोई मन्दबुद्धि शिष्य सम्पूर्ण श्रुत का पाठ न भी कर सके, तब भी उसके मोक्ष में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं थी और उसका ऐहिक जीवन भी निर्बाध रूप से सदाचार के बल पर व्यतीत हो सकता था। जैन सूत्रों का दैनिक क्रियाओं में विशेष उपयोग भी नहीं है। जहाँ एक सामायिक पदमात्र से भी मोक्षमार्ग सुगम हो जाने की शक्यता हो, वहाँ विरले ही साधक यदि संपूर्ण श्रुतधर होने का प्रयत्न करें, तो इसमें क्या आश्चर्य ।” डाक्टर साहब का उक्त कथन ऐतिहासिक सत्य के निकट है। यही कारण है कि आगमों की परम्परा बीच-बीच में कई बार छिन्न-भिन्न होती रही। भयंकर दुष्कालों के समय तो वह और भी विषम स्थिति में पहुँच गई। स्मृति दुर्बलता के कारण भी आगमों के अनेक अंश अस्तव्यस्त होते गए। और जब-जब यह स्थिति आई, तो आगमों की सुरक्षा के लिए श्रुतधर आचार्यों ने युगानुसार प्रयत्न किए। बौद्ध परम्परा में त्रिपिटिक के व्यवस्थित संकलन एवं संरक्षण के लिए होने वाली विद्वत्परिषद् को संगीति कहते हैं, जैन परम्परा में इस प्रकार आगमसुरक्षा के सामूहिक प्रयत्नों को वाचना कहा जाता है। ये वाचनाएँ मुख्य रूप से तीन हैं। सर्वप्रथम पाटिलपुत्र की वाचना है, जो आचार्य भद्रबाह स्वामी और आर्य स्थूल भद्र के निर्देशन में हुई। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में १२ वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा था। उस समय संघ बहुत अस्त-व्यस्त हो गया था। ऐसी स्थिति में आगमों का अभ्यास कैसे चालू रह सकता था। अत: दुष्काल के बाद आगमों को यथास्मृति व्यवस्थित रूप देने के लिए प्रथम वाचना का सूत्रपात हुआ। इस वाचना में आचारांग आदि ११ अंग और बारहवें दृष्टिवाद अंग के १४ पूर्वो में १० पूर्व ही शेष बच पाए थे। जैन कथानुसार एक मात्र स्थूलभद्र ही ऐसे थे, जिन्हें शब्दश: १४ पूर्व का और अर्थश: १० पूर्वो तक का स्पष्ट ज्ञान था। ८. ९. नन्दीसूत्र, उपसंहार अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गुंथति गणहरा निउणं। -आवश्यकनियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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