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उत्तराध्ययन सूत्र
४८. तीसे सो वयणं सोच्चा
संजयाए सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो
धम्मे संपडिवाइओ॥ ४९. मणगुत्तो वयगुत्तो
कायगुत्तो जिइन्दिओ। सामण्णं निच्चलं फासे । जावज्जीवं दढव्वओ॥ उग्गं तवं चरित्ताणं जाया दोण्णि वि केवली। सव्वं कम्मं खवित्ताणं
सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। ५१. एवं करेन्ति संबुद्धा
पण्डिया पवियक्खणा। विणियट्टन्ति भोगेसु जहा सो पुरिसोत्तमो॥
उस संयता के सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में सम्यक् प्रकार से वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश से हाथी हो जाता है।
वह मन, वचन और काया से गुप्त, जितेन्द्रिय और व्रतों में दृढ़ हो गया। जीवन-पर्यन्त निश्चय भाव से श्रामण्य का पालन करता रहा।
उग्र तप का आचरण करके दोनों ही केवली हुए। सब कर्मों का क्षय करके उन्होंने अनुत्तर 'सिद्धि' को प्राप्त किया।
सम्बुद्ध, पण्डित और पविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं। पुरुषोत्तम रथनेमि की तरह वे भोगों से निवृत्त हो जाते हैं।
—त्ति बेमि।
—ऐसा मैं कहता हूँ।
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