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________________ २२ – रथनेमीय नलकूबरो । ४१. जइ सि रूवेण वेसमणो ललिएण तहा वि ते न इच्छामि जड़ सि सक्खं पुरन्दरो ॥ ४२. पक्खंदे जलियं जोइं धूमकेडं दुरासयं । नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ॥ ४३. धिरत्थु ते जसोकामी ! जो तं जीवियकारणा । वन्तं इच्छसि आवेडं सेयं ते मरणं भवे ॥ ४४. अहं च भोयरायस्स तं च सि अन्धगवहिणो । मा कुले गन्धणा होमो संजमं निहुओ चर ॥ ४५. जड़ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्धो व्व ढो अट्ठिअप्पा भविस्ससि ॥ ४६. गोवालो भण्डवालो वा जहा तद्दव्वऽणिस्सरो । एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि ॥ ४७. कोहं माणं निगिण्हित्ता मायं लोभं च सव्वसो । इन्दियाई वसे उवसंहरे ॥ काउं अप्पाणं Jain Education International २३१ - राजीमती - " यदि तू रूप से वैश्रमण के समान है, ललित कलाओं से नलकुबर के समान है, और तो क्या, तू साक्षत् इन्द्र भी है, तो भी मैं तुझे नहीं चाहती हूँ ।" 'अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प धूम की ध्वजा वाली, प्रज्वलित, भयंकर, दुष्प्रवेश अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु वमन किए हुए अपने विष को पुनः पीने की इच्छा नहीं करते हैं ।” -“हे यश: कामिन्! धिक्कार है तुझे कि तू भोगी जीवन के लिए वान्त - त्यक्त भोगों को पुनः भोगने को इच्छा करता है । इससे तो तेरा मरना श्रेयस्कर है ।" ― ― - " मैं भोजराजा की पौत्री हूँ और तू अन्धक - वृष्णि का पौत्र है । हम कुल गन्धन सर्प की तरह न बनें। तू निभृत (स्थिर) होकर संयम का पालन कर ।” - " यदि तू जिस किसी स्त्री को देखकर ऐसे ही राग-भाव करेगा, तो वायु से कम्पित हड (वनस्पति विशेष) की तरह तू अस्थितात्मा होगा । " - -" जैसे गोपाल और भाण्डपाल उस द्रव्य के— गायों और किराने आदि के स्वामी नहीं होते हैं, उसी प्रकार तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा । " – “तू क्रोध, मान, माया और लोभ को पूर्णतया निग्रह करके, इन्द्रियों को वश में करके अपने-आप को उपसंहार करर - अनाचार से निवृत्त कर ।” For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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