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उत्तराध्ययन सूत्र
३४. चीवराई विसारन्ती
जहा जाय त्ति पासिया। रहनेमी भग्गचित्तो पच्छा दिवो य तीइ वि॥
३५. भीया य सा तहिं दटठं
एगन्ते संजयं तयं। बाहाहिं काउं संगोफं
वेवमाणी निसीयई। ३६. अह सो वि रायपुत्तो
समुद्दविजयंगओ। भीयं पवेवियं दटुं इमं वक्कं उदाहरे॥
३७. रहनेमी अहं भद्दे !
सुरूवे ! चारुभासिणि!। ममं भयाहि सुयणू!
न ते पीला भविस्सई ॥ ३८. एहि ता भुजिमो भोए
माणुस्सं खु सुदुल्लहं। भुत्तभोगा तओ पच्छा
जिणमग्गं चरिस्समो॥ ३९. दळूण रहनेमि तं
भग्गुज्जोयपराइयं। राईमई असम्भन्ता अप्पाणं संवरे तहिं ।।
सुखाने के लिए अपने चीवरोंवस्त्रों को फैलाती हुई राजीमती को यथाजात (नग्न) रूप में रथनेमि ने देखा। उसका मन विचलित हो गया। पश्चात् राजीमती ने भी उसको देखा।
वहाँ एकान्त में उस संयत को देखकर वह डर गई। भय से काँपती हुई वह अपनी दोनों भुजाओं से शरीर को आवृत कर बैठ गई।
तब समुद्रविजय के अंगजात उस राजपुत्र ने राजीमती को भयभीत और काँपती हुई देखकर इस प्रकार वचन कहा
रथनेमि___“भद्रे ! मैं रथनेमि हूँ। हे सुन्दरी ! हे चारुभाषिणी ! तू मुझे स्वीकार कर। हे सुतनु ! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।"
-"निश्चित ही मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। आओ, हम भोगों को भोगें। बाद में भुक्तभोगी हम जिन-मार्ग में दीक्षित होंगे।" __संयम के प्रति भग्नोद्योगउत्साह-हीन तथा भोग-वासना से पराजित रथनेमि को देखकर वह सम्भ्रान्त न हुई-घबराई नहीं। उसने वस्त्रों से अपने शरीर को पुन: ढंक लिया।
नियमों और व्रतों में सुस्थितअविचल रहने वाली श्रेष्ठ राजकन्या राजीमती ने जाति, कुल और शील की रक्षा करते हुए रथनेमि से कहा
४०. अह सा रायवरकन्ना
सुट्टिया नियम-व्वए। जाई कुलं च सीलं च रक्खमाणी तयं वए।
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