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________________ २२८ २०. सो कुण्डलाण जुयलं सुत्तगं च महायसो । आभरणाणि य सव्वाणि सारहिस्स पणामए ॥ २१. मणपरिणामे य कए देवा य जोइयं समोइण्णा । परिसा सव्वड्डीए निक्खमणं तस्स कार्ड जे || २२. देव- मणुस्सपरिवुडो सीयारयणं तओ समारूढो । निक्खमिय बारगाओ रेवययंमि द्विओ भगवं ॥ संपत्तो ओइणो उत्तिमाओ सीयाओ । साहस्सीए अह निक्खमई उ चित्ताहिं ॥ परिवुडो २३. उज्जाणं २४. अह से सुगन्धगन्धिए तुरियं कुंचि । सयमेव लुंचई केसे पंचमुट्ठीहिं समाहिओ ॥ २५. वासुदेवो य णं भणड़ लुत्तकेसं जिइन्दियं । इच्छियमणोरहे तुरियं पावेसु तं दमीसरा ॥ दंसणेणं च चरित्तेण तहेव य। खन्तीए बड्डूमाणो २६. नाणेणं Jain Education International मुत्ती भवाहि य ॥ उत्तराध्ययन सूत्र उस महान् यशस्वी ने कुण्डलयुगल, सूत्रक — करधनी और अन्य सब आभूषण उतार कर सारथि को दे दिए । मन में ये परिणाम — भाव होते ही उनके यथोचित अभिनिष्क्रमण के लिए देवता अपनी ऋद्धि और परिषद् के साथ आए । देव और मनुष्यों से परिवृत भगवान् अरिष्टनेमि शिबिकारल श्रेष्ठ पालखी में आरूढ़ हुए। द्वारका से चल कर रैवतक ( गिरनार ) पर्वत पर स्थित हुए । उद्यान में पहुँचकर, उत्तम शिबिका से उतरकर, एक हजार व्यक्तियों के साथ, भगवान् ने चित्रा नक्षत्र में निष्क्रमण किया । तदनन्तर समाहित – समाधिसंपन्न अरिष्टनेमि ने तुरन्त अपने सुगन्ध से सुवासित कोमल और घुंघराले बालों का स्वयं अपने हाथों से पंचमुष्टि लोच किया । वासुदेव कृष्ण ने लुप्तकेश एवं जितेन्द्रिय भगवान् को कहा – “हे दमीश्वर ! तुम अपने अभीष्ट मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करो ।” - " तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षान्ति - क्षमा और मुक्ति — निर्लोभता के द्वारा आगे बढ़ो ।” For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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