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________________ २२ - रथनेमीय इड्डीए १३. एयारिसीए जुईए उत्तिमाए य । नियगाओ भवणाओ निज्जाओ वहिपुंगव || १४. अह सो तत्थ निज्जन्तो दिस्स पाणे भयदुए | वाडेहिं पंजरेहिं च सन्निरुद्धे सुदुक्खिए । १५. जीवियन्तं तु संपत्ते मंसट्टा भक्खियव्वए । पासेत्ता से महापन्ने सारहिं इब्बवी ॥ १६. कस्स अट्ठा इमे पाणा एए सव्वे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहिं च सन्निरुद्धा य अच्छहिं ? १७. अह सारही तओ भणइ एए भद्दा उ पाणिणो । तुज्झं विवाहकज्जंमि भोयावेडं बहुं जणं ॥ १८. सोऊण तस्स वयणं बहुपाणि - विणासणं । चिन्तेइ से महापन्ने साक्कोसे जिएहि उ ॥ १९. जइ मज्झ कारणा एए हम्मिहिंति बहू जिया । न मे एयं तु परलोगे निस्सेसं भविस्सई ॥ Jain Education International २२७ ऐसी उत्तम ऋद्धि और उत्तम द्युति के साथ वह वृष्णि - पुंगव अपने भवन से निकला । तदनन्तर उसने बाड़ों और पिंजरों में बन्द किए गए भयत्रस्त एवं अति दु:खित प्राणियों को देखा । वे जीवन की अन्तिम स्थिति (मृत्यु) के सम्मुख थे । मांस के लिए खाये जाने वाले थे । उन्हें देखकर महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि ने सारथि ( पीलवान) को इस प्रकार कहा - " ये सब सुखार्थी प्राणी किसलिए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हुए हैं ? " सारथि ने कहा - " ये भद्र प्राणी आपके विवाह-कार्य में बहुत से लोगों को मांस खिलाने के लिए हैं।" अनेक प्राणियों के विनाश से सम्बन्धित वचन को सुनकर जीवों के प्रति करुणाशील, महाप्राज्ञ अरिष्टनेमि इस प्रकार चिन्तन करते हैं - " यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से प्राणियों का वध होता है, तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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