SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० उत्तराध्ययन सूत्र २०. १७. परीसहा दुबिसहा अणेगे अनेक दुर्विषह-असह्य परीषह सीयन्ति जत्था बहकायरा नरा। प्राप्त होने पर बहुत से कायर लोग ते तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू खेद का अनुभव करते हैं। किन्तु भिक्षु परिषह प्राप्त होने पर संग्राम में आगे संगामसीसे इव नागराया। रहने वाले नागराज-हाथी की तरह व्यथित न हो। १८. सीओसिणा दंसमसा य फासा शीत, उष्ण, डांस, मच्छर, तृण आयंका विविहा फुसन्ति देहं। स्पर्श तथा अन्य विविध प्रकार के अकुक्कुओ तत्थ ऽहियासएज्जा आतंक जब भिक्षु को स्पर्श करें, तब रयाई खेवेज्ज पुरेकडाई॥ वह कुत्सित शब्द न करते हुए उन्हें समभाव से सहन करे । पूर्वकृत कर्मा को क्षीण करे। १९. पहाय रागं च तहेव दोसं विचक्षण भिक्षु सतत राग-द्वेष मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो। और मोह को छोड़ कर, वायु से मेरु व्व वाएण अकम्पमाणो अकम्पित मेरु की भाँति आत्म-गुप्त परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ॥ बनकर परीषहों को सहन करे। अणुन्नए नावणए महेसी पूजा-प्रतिष्ठा में उन्नत और गर्दा में न यावि पूयं गरहं च संजए। अवनत न होने वाला महर्षि पूजा और स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए गर्दा में लिप्त न हो। वह समभावी निव्वाणमग्गं विरए उवेड॥ विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाण-मार्ग को प्राप्त होता है। २१. अरइरइसहे पहीणसंथवे जो अरति और रति को सहन विरए आयहिए पहाणवं। करता है, संसारी जनों के परिचय से परमट्ठपएहिं . चिढ़ई दूर रहता है, विरक्त है, आत्म-हित का छिन्नसोए अममे अकिंचणे॥ साधक है, प्रधानवान् है-संयमशील है, शोक रहित है, ममत्त्व रहित है, अकिंचन है, वह परमार्थ पदों मेंसम्यग् दर्शनादि मोक्ष-साधनों में स्थित होता है। २२. विवित्तलयणाइ भएज्ज ताई त्रायी-प्राणिरक्षा करने वाला मुनि निरोवलेवाइ असंथडाई। महान् यशस्वी ऋषियों द्वारा स्वीकृत, इसीहि चिण्णाइ महायसेहिं । लेपादि कर्म से रहित, असंसृतकाएण फासेज्ज परीसहाई॥ बीजादि से रहित, विविक्त लयन एकान्त स्थानों का सेवन करे और परीषहों को सहन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy