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________________ २०-महानिर्ग्रन्थीय २०७ १७. सुणेह मे महाराय ! अवक्खित्तेण चेयसा। जहा अणाहो भवई जहा मे य पवत्तियं ॥ १८. कोसम्बी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी। तत्थ आसी पिया मज्झ पभूयधणसंचओ ।। १९. पढमे वए महाराय! अउला मे अच्छिवेयणा। अहोत्था विउलो दाहो सव्वंगेसु य पत्थिवा!॥ २०. सत्थं जहा परमतिक्खं सरीरविवरन्तरे। पवेसेज्ज अरी कुद्धो एवं मे अच्छिवेयणा ।। -"महाराज ! अव्याक्षिप्तअनाकुल चित्तसे मुझे सुनिए कि यथार्थ में अनाथ कैसे होता है, किस भाव से मैंने उसका प्रयोग किया है?" -"प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर कौशाम्बी नाम की नगरी है। वहाँ मेरे पिता थे। उनके पास प्रचुर धन का संग्रह था।" -“महाराज ! प्रथम वय मेंयुवावस्था में मेरी आँखों में अतुल ---असाधारण वेदना उत्पन्न हुई। पार्थिव ! उससे मेरे सारे शरीर में अत्यन्त जलन होती थी।” -“कुद्ध शत्रु जैसे शरीर के मर्म-स्थानों में अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र घोंपदे और उससे जैसे वेदना हो, वैसे ही मेरी आँखों में भयंकर वेदना हो रही थी।" -जैसे इन्द्र के वज्रप्रहार से भयंकर वेदना होती है, वैसे ही मेरे त्रिक-कटिभाग में, अन्तरेच्छ-हृदय में और उत्तमांग-मस्तक में अति दारुण वेदना हो रही थी।" ___“विद्या और मंत्र से चिकित्सा करने वाले, मंत्र तथा औषधियों के विशारद, अद्वितीय शास्त्रकुशल, आयुर्वेदाचार्य मेरी चिकित्सा के लिए उपस्थित थे।" __-"उन्होंने मेरे हितार्थ वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक-रूप चतुष्पाद चिकित्सा की, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके। यह मेरी अनाथता २१. तियं मे अन्तरिच्छं च उत्तमंगं च पीडई। इन्दासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ॥ २२. उवट्ठिया मे आयरिया विज्जा-मन्ततिगिच्छगा। अबीया सत्थकुसला मन्त-मूलविसारया। २३. ते मे तिगिच्छं कुव्वन्ति चाउप्पायं जहाहियं न य दुक्खा विमोयन्ति एसा मज्झ अणाया॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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