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उत्तराध्य
११. होमि नाहो भयन्ताणं
भोगे भुंजाहि संजया!। मित्त-नाईपरिवुडो माणुस्सं खु सुदुल्लहं ।।
१२. अप्पणा वि अणाहो सि
सेणिया! मगहाहिवा! अप्पणा अणाहो सन्तो
कहं नाहो भविस्ससि? १३. एवं वुत्तो नरिन्दो सो
सुसंभन्तो सुविम्हिओ। वयणं अस्सुयपुव्वं साहुणा विम्हयन्निओ॥
राजा श्रेणिक___“भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ। हे संयत ! मित्र और ज्ञातिजनों के साथ भोगों को भोगो। यह मनुष्यजीवन बहुत दुर्लभ है।"
मुनि
-“श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो। मगधाधिप ! जब तुम स्वयं अनाथ हो तो किसी के नाथ कैसे हो सकोगे?"
राजा पहले ही विस्मित हो रहा था, अब तो मुनि ने अश्रुतपूर्व (पहले कभी नहीं सुना गया-'अनाथ' यह) वचन सुनकर तो और भी अधिक संभ्रान्त–संशयाकुल एवं विस्मित हुआ।
राजा श्रेणिक__“मेरे पास अश्व हैं, हाथी हैंनगर और अन्त:पुर है। मैं मनुष्यजीवन के सभी सुख-भोगों को भोग रहा हूँ। मेरे पास आज्ञा-शासन और ऐश्वर्यप्रभुत्व भी है।"
–“इस प्रकार प्रधान-श्रेष्ठ सम्पदा, जिसके द्वारा सभी कामभोग मुझे समर्पित होते हैं, मुझे प्राप्त हैं। इस स्थिति में भला मैं कैसे अनाथ हूँ? भदन्त ! आप झूठ न बोलें।"
१४. अस्सा हत्थी मणुस्सा मे
पुरं अन्तेउरं च मे। भुंजामि माणुसे भोगे आणा इस्सरियं च मे॥
१५. एरिसे सम्पयग्गम्मि
सव्वकामसमप्पिए। कहं अणाहो भवइ? र हु भन्ते ! मुसं वए।।
मुनि
१६. न तुम जाणे अणाहस्स
अत्थं पोत्यं व पत्थिवा!। जहा अणाहो भवई सणाहो वा नराहिवा? ॥
—“पृथ्वीपति-नरेश ! तुम 'अनाथ' के अर्थ और परमार्थ को नहीं जानते हो कि मानव अनाथ और सनाथ कैसे होता है?"
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