SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०-महानिर्ग्रन्थीय २०५ साधु के अनुपम रूप को देखकर राजा को उसके प्रति बहुत ही अधिक अतुलनीय विस्मय हुआ। ५. तस्स रूवं तु पासित्ता राइणो तम्मि संजए। अच्चन्तपरमो आसी अउलो रूवविम्हओ।। अहो ! वण्णो अहो ! रूवं अहो! अज्जस्स सोमया। अहो ! खंती अहो! मुत्ती अहो ! भोगे असंगया॥ तस्स पाए उ वन्दित्ता काऊण य पयाहिणं। नाइदूरमणासन्ने पंजली पडिपुच्छई॥ ८. तरुणोसि अज्ज ! पव्वइओ भोगकालम्मि संजया! उवढिओ सि साम्मणे एयमटुं सुणेमि ता॥ अहो, क्या वर्ण (रंग) है ! क्या रूप (आकार) है ! अहो, आर्य की कैसी सौम्यता है ! अहो, क्या शान्ति है, क्या मुक्ति-निर्लोभता है ! अहो, भोगों के प्रति कैसी असंगता है ! मनि के चरणों में वन्दना और प्रदक्षिणा करने के पश्चात् राजा न अति दूर, न अति निकट अर्थात् योग्य स्थान में खड़ा रहा और हाथ जोड़कर मुनि से पूछने लगा राजा श्रेणिक -“हे आर्य ! तुम अभी युवा हो। फिर भी हे संयत ! तुम भोगकाल में दीक्षित हुए हो, श्रामण्य में उपस्थित हुए हो। इसका क्या कारण है, मैं सुनना चाहता हूँ।” मुनि___“महाराज ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ-अभिभावक एवं संरक्षक नहीं है । मुझ पर अनुकम्पा रखने वाला कोई सुहृद्-मित्र मैं नहीं पा रहा हूँ।" यह सुनकर मगधाधिप राजा श्रेणिक जोर से हँसा और मुनि से बोला-“इस प्रकार तुम देखने में ऋद्धि संपन्न-सौभाग्यशाली लगते हो, फिर भी तुम्हारा कोई कैसे नाथ नहीं ९. अणाहो मि महाराय! नाहो मज्झ न विज्जई। अणुकम्पगं सुर्हि वावि कंचि नाभिसमेमऽहं ।। १०. तओ सो पहसिओ राया सेणिओ मगहाहिवो। एवं ते इड्डिमन्तस्स कहं नाहो न विज्जई? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy