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२०-महानिर्ग्रन्थीय
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साधु के अनुपम रूप को देखकर राजा को उसके प्रति बहुत ही अधिक अतुलनीय विस्मय हुआ।
५. तस्स रूवं तु पासित्ता
राइणो तम्मि संजए। अच्चन्तपरमो आसी अउलो रूवविम्हओ।। अहो ! वण्णो अहो ! रूवं अहो! अज्जस्स सोमया। अहो ! खंती अहो! मुत्ती अहो ! भोगे असंगया॥
तस्स पाए उ वन्दित्ता काऊण य पयाहिणं। नाइदूरमणासन्ने पंजली पडिपुच्छई॥
८. तरुणोसि अज्ज ! पव्वइओ
भोगकालम्मि संजया! उवढिओ सि साम्मणे एयमटुं सुणेमि ता॥
अहो, क्या वर्ण (रंग) है ! क्या रूप (आकार) है ! अहो, आर्य की कैसी सौम्यता है ! अहो, क्या शान्ति है, क्या मुक्ति-निर्लोभता है ! अहो, भोगों के प्रति कैसी असंगता है !
मनि के चरणों में वन्दना और प्रदक्षिणा करने के पश्चात् राजा न अति दूर, न अति निकट अर्थात् योग्य स्थान में खड़ा रहा और हाथ जोड़कर मुनि से पूछने लगा
राजा श्रेणिक
-“हे आर्य ! तुम अभी युवा हो। फिर भी हे संयत ! तुम भोगकाल में दीक्षित हुए हो, श्रामण्य में उपस्थित हुए हो। इसका क्या कारण है, मैं सुनना चाहता हूँ।”
मुनि___“महाराज ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ-अभिभावक एवं संरक्षक नहीं है । मुझ पर अनुकम्पा रखने वाला कोई सुहृद्-मित्र मैं नहीं पा रहा हूँ।"
यह सुनकर मगधाधिप राजा श्रेणिक जोर से हँसा और मुनि से बोला-“इस प्रकार तुम देखने में ऋद्धि संपन्न-सौभाग्यशाली लगते हो, फिर भी तुम्हारा कोई कैसे नाथ नहीं
९. अणाहो मि महाराय!
नाहो मज्झ न विज्जई। अणुकम्पगं सुर्हि वावि
कंचि नाभिसमेमऽहं ।। १०. तओ सो पहसिओ राया
सेणिओ मगहाहिवो। एवं ते इड्डिमन्तस्स कहं नाहो न विज्जई?
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