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________________ १९८ ८७. एवं सो अम्मापियरो अणुमाणित्ताण बहुविहं । ममत्तं छिन्दई ताहे महानागो व्व कंचुयं ॥ ८८. इड्डि वित्तं च मित्ते य पुत्त- दारं च नायओ । रेणुखं व पडे लग्गं निर्द्धाणित्ताण निग्गओ || ८९. पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो य । सब्भिन्तर - बाहिरओ तवोकम्पंसि उज्जुओ ॥ निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो । समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य ॥ ९०. निम्ममो ९१. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा । समो निन्दा-पसंसासु तहा माणावमाणओ | ९२. गारवेसु कसाएसु दण्ड- सल्ल भएसु य । नियत्तो हास- सोगाओ अनियाणो अबन्धणो ॥ ९३. अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ । वासीचन्द कप्पो य असणे असणे तहा ॥ Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र उपसंहार— इस प्रकार वह अनेक तरह से माता-पिता को अनुमति के लिए समझा कर महत्त्व का त्याग करता है, जैसे कि महानाग कैंचुल को छोड़ता है । कपड़े पर लगी हुई धूल की तरह ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, कलत्र और ज्ञाति जनों को झटककर वह संयमयात्रा के लिए निकल पड़ा । पंच महाव्रतों से युक्त, पाँच समितियों से समित तीन गुप्तियों से गुप्त, आभ्यन्तर और बाह्य तप में उद्यत— ममत्त्वरहित, अहंकाररहित, संगरहित, गौरव का त्यागी, त्रस तथा स्थावर सभी जीवों में समदृष्टि लाभ में, अलाभ में, सुख में, दुःख में, जीवन में, मरण में, निन्दा में, प्रशंसा में, और मान-अपमान में समत्त्व का साधक गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बन्धन से मुक्त इस लोक और परलोक में अनासक्त, बसूले से काटने अथवा चन्दन लगाए जाने पर भी तथा आहार मिलने और न मिलने पर भी सम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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