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१९-मृगापुत्रीय
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९४. अप्पसत्येहिं दारेहि
अप्रशस्त द्वारों-हेतुओं से आने सव्वओ पिहियासबे। वाले कर्म-पुद्गलों का सर्वतोभावेन अज्झप्पज्झाणजोगेहिं
निरोधक महर्षि मृगापुत्र अध्यात्मपसत्य - दमसासणे॥ सम्बन्धी ध्यानयोगों से प्रशस्त संयम
शासन में लीन हुआ। ९५. एव नाणेण चरणेण
इस प्रकार ज्ञान, चारित्र, दर्शन, तप दंसणेण तवेण य।
और शुद्ध-भावनाओं के द्वारा आत्मा भावणाहि य सुद्धाहिं को सम्यक्तया भावित कर
सम्मं भावेत्तु अप्पयं ॥ ९६. बहुयाणि उ वासाणि
बहुत वर्षों तक श्रामण्य धर्म का सामण्णमणुपालिया। पालन कर अन्त में एक मास के मासिएण उ भत्तेण अनशन से वह अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त
सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ॥ हुआ। ९७. एवं करन्ति संबुद्धा
संबद्ध, पण्डित और अतिविचक्षण पण्डिया पवियक्खणा। व्यक्ति ऐसा ही करते हैं। वे कामविणियन्ति भोगेसु भोगों से वैसे ही निवृत्त होते हैं, जैसे
मियापुत्ते जहारिसी॥ कि महर्षि मृगापुत्र निवृत्त हुआ। ९८. महापभावस्स महाजसस्स महान् प्रभावशाली, महान् यशस्वी
मियाइ पुत्तस्स निसम्म भासियं। मृगापुत्र के तप:प्रधान, त्रिलोक-विश्रुत तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं एवं मोक्षरूपगति से प्रधान-उत्तम
गइप्पहाणं च तिलोगविस्मयं ॥ चारित्र के कथन को सुनकर९९. वियाणिया दक्खविवद्धणं धणं धन को दुःखवर्धक तथा ममत्त्व
ममत्तबंधं च महब्भयावहं। बन्धन को महाभयंकर जानकर निर्वाण सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं के गुणों को प्राप्त करने वाली, धारेह निव्वाणगुणावहं महं॥ सुखावह-अनन्त सुख-प्रापक, अनुत्तर
धर्म-धुरा को धारण करो। -त्ति बेमि॥ __-ऐसा मैं कहता हूँ।
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