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१९ - मृगापुत्रीय
८१. जया य से सुही होइ
तया गच्छइ
गोयरं ।
भत्तपाणस्स
अट्ठाए
वल्लराणि सराणि य ॥
८२. खाइत्ता पाणियं पाउं वल्लरेहिं सरोह वा । मिगचारियं चरित्ताणं गच्छई मिगचारियं ॥
८३. एवं समुट्ठिओ भिक्खू aa अणेगओ मिगचारियं चरित्ताणं उड्डुं पक्कमईदिसं ॥
८४. जहा मिगे एग अणेगचारी अणेगवासे धुवगोयरे य । एवं मुणी गोयरियं पविट्टे नो ही नो विय खिसएज्जा ।।
८५. मिगचारियं
एवं पुत्ता ! अम्मा पिऊहिं जहाइ उवहिं
चरिस्सामि
जहासुहं । अन्नाओ तओ ॥
८६. मियचारियं चरिस्सामि सब्बदुक्खविमोक्खाणि । भेहि अम्म ! ऽणुन्नाओ गच्छ पुत्त ! जहासुहं ॥
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- " जब वह स्वस्थ हो जाता है, तब स्वयं गोचर भूमि में जाता है । और खाने-पीने के लिए बल्लरों - लता - निकुंजों व गहन ( झाड़ियों) तथा जलाशयों को खोजता है ।'
- “लता- निकुंजों और जलाशयों में खाकर - पानी पीकर मृगचर्या ( उछल-कूद ) करता हुआ वह मृग अपनी मृगचर्या (मृगों की निवासभूमि) को चला जाता है ।”
- " रूपादि में अप्रतिबद्ध, संयम के लिए उद्यत भिक्षु स्वतंत्र विहार करता हुआ, मृगचर्या की तरह आचरण कर ऊर्ध्वदिशा - मोक्ष को गमन करता हैं ।”
- “ जैसे मृग अकेला अनेक स्थानों में विचरता है, अनेक स्थानों में रहता है, सदैव गोचर-चर्या से ही जीवन-यापन करता है, वैसे ही गोचरी के लिए गया हुआ मुनि भी किसी की निन्दा और अवज्ञा नहीं करता है । "
- " मैं मृगचर्या का आचरण करूँगा।” “पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो। " - इस प्रकार माता-पिता की अनुमति पाकर वह उपधि - परिग्रह को छोड़ता है ।
मृगापुत्र
- " हे माता ! मैं तुम्हारी अनुमति प्राप्त कर सभी दुःखों का क्षय करने वाली मृगचर्यो का आचरण करूँगा । "
माता
“ पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे चलो ।”
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