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उत्तराध्ययन सूत्र
७४. जारिसा माणसे लोए
ताया ! दीसन्ति वेयणा। एतो अणन्तगुणिया ।
नरएसु दुक्खवेयणा ॥ ७५. सव्वभवेसु अस्साया
वेयणा वेइया मए। निमेसन्तरमित्तं पि जं साया नत्थि वेयणा॥
७६. तं बिंत ऽम्मापियरो
छन्देणं पुत्त! पव्वया। नवरं पुण सामण्णे दुक्खं निप्पडिकम्मया।
-- "हे पिता ! मनुष्य-लोक में जैसी वेदनाएँ देखी जाती हैं, उनसे अनन्त गुण अधिक दुःख-वेदनाएँ नरक में हैं।" ____मैंने सभी जन्मों में दुःख-रूप वेदना का अनुभव किया है। एक क्षण के अन्तर जितनी भी सुखरूप वेदना (अनुभूति) वहाँ नहीं है।”
माता-पिता
माता-पिता ने उससे कहा-“पुत्र ! अपनी इच्छानुसार तुम भले ही संयम स्वीकार करो। किन्तु विशेष बात यह है कि-श्रामण्य-जीवन में निष्प्रतिकर्मता अर्थात् रोग होने पर चिकित्सा न कराना, यह कष्ट है।"
मृगापुत्र__वह बोला-“माता-पिता ! आपने जो कहा वह सत्य है। किन्त जंगलों में रहने वाले निरीह पशु-पक्षियों की चिकित्सा कौन करता है?"
-"जैसे जंगल में मृग अकेला विचरता है, वैसे ही मैं भी संयम और तप के साथ एकाकी होकर धर्म का आचरण करूँगा।"
-"जब महावन में मृग के शरीर में आतंक (आशुधाती रोग) उत्पन्न हो जाता है, तब वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस मृग की कौन चिकित्सा करता है ?” _____“कौन उसे औषधि देता है ? कौन उसे सुख की (स्वास्थ्य की) बात पूछता है ? कौन उसे भक्त-पान लाकर
७७. सो बिंत ऽम्मापियरो!
एवमेयं जहाफुडं। पडिकम्मं को कुणई
अरण्णे मियपक्खिणं? ७८. एगभूओ अरण्णे वा
जहा उ चरई मिगो। एवं धम्मं चरिस्सामि
संजमेण तवेण य॥ ७९. जया मिगस्स आर्यको
महारण्णम्मि जायई। अच्छन्तं रुक्खमूलम्मि को णं ताहे तिगिच्छई? को वा से ओस हं देई? को वा से पुच्छई सुहं? को से भत्तं च पाणं च आहरित्तु पणामए?
८०.
देता है?"
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