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________________ १९३ १९-मृगापुत्रीय ५३. अइतिक्खकंटगाइण्णे तुंगे सिम्बलिपायवे। खेवियं पासबद्धणं कड्डोकड्ढाहि दुक्करं ॥ ५४. महाजन्तेसु उच्छू वा आरसन्तो सुभेरवं। पीलिओ मि सकम्मेहि पावकम्मो अणन्तसो॥ ५५. कूवन्तो कोलसुणएहिं सामेहिं सबलेहि य। पाडिओ फालिओ छिन्नो विप्फुरन्तो अणेगसो । ५६. असीहि अयसिवण्णाहिं भल्लीहिं पट्टिसेहि य। छिन्नो भिन्नो विभिन्नो य ओइण्णो पावकम्मणा। -“अत्यन्त तीखे काँटों से व्याप्त ऊँचे शाल्मलि वृक्ष पर पाश से बाँधकर, इधर-उधर खींचकर मुझे असह्य कष्ट दिया गया।" —“अति भयानक आक्रन्दन करता हुआ, मैं पापकर्मा अपने कर्मों के कारण, गन्ने की तरह बड़े-बड़े यन्त्रों में अनन्त बार पीला गया है।" -मैं इधर-उधर भागता और आक्रन्दन करता हुआ, काले तथा चितकबरे सूअर और कुत्तों से अनेक बार गिराया गया, फाड़ा गया और छेदा गया।" _“पाप कर्मों के कारण मैं नरक में जन्म लेकर अलसी के फूलों के समान नीले रंग की तलवारों से, भालों से और लौह के दण्डों से छेदा गया, भेदा गया, और खण्ड-खण्ड कर दिया गया।" -“समिला (जुए के छेदों में लगाने की कील) से युक्त जूएवाले जलते लौह के रथ में पराधीन में जोता गया हूँ, चाबुक और रस्सी से हाँका गया हूँ तथा रोझ की भाँति पीट कर भूमि पर गिराया गया हूँ।" -"पापकर्मों से घिरा हुआ पराधीन मैं अग्नि की चिताओं में भैंसे की भाँति जलाया और पकाया गया ५७. अवसो लोहरहे जुत्तो जलन्ते समिलाजुए। चोइओ तोत्तजत्तेहि रोज्झो वा जह पाडिओ॥ ५८. हुयासणे जलन्तम्मि चियासु महिसो विव। दडो पक्को य अवसो पावकम्मेहि पाविओ॥ ५९. बला संडासतुण्डेहिं लोहतुण्डेहि पक्खिहिं। विलुत्तो विलवन्तोऽहं हंक-गिद्धेहिऽणन्तसो॥ ___"लोहे के समान कठोर संडासी-जैसी चोंच वाले ढंक और गीध पक्षियों द्वारा, मैं रोता-बिलखता हठात् अनन्त बार नोचा गया हूँ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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