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________________ १९ - मृगापुत्रीय ४०. जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदुक्करं । तह दुक्करं करेडं जे तारुण्णे समणत्तणं ॥ ४१. जहा दुक्खं भरेडं जे होई वायरस कोत्थलो । तहा दुक्खं करेडं जे कीवेणं समणत्तणं ॥ ४२. जहा तुलाए तोलेडं दुक्करं मन्दरो गिरी । तहा निहुयं नीसंक दुक्करं समणत्तणं ॥ ४३. जहा भुयाहिं तरिडं दुक्करं रयणागरो । तहा अणुवसन्तेणं दुक्करं दमसागरो || ४४. भुंज माणुस्सए भोगे पंचलक्खणए तुमं । भुत्तभोगी तओ जाया ! पच्छा धम्मं चरिस्ससि ।। बिंत ऽम्मापियरो एवमेयं जहा फुडं । इह लोए निष्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं । ४५. तं चेव अणन्तसो ४६. सारीर - माणसा वेयणाओ मए सोढाओ भीमाओ असई दुक्खभयाणि य ॥ Jain Education International १९१ - " जैसे प्रज्वलित अग्निशिखाज्वाला को पीना दुष्कर है, वैसे ही युवावस्था में श्रमणधर्म का पालन करना दुष्कर है।” वस्त्र के कोत्थल – “ जैसे को - थैले को हवा से भरना कठिन है, वैसे ही कायरों के द्वारा श्रमणधर्म का पालन करना भी कठिन होता है । " -" जैसे मेरुपर्वत को तराजू से तोलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चल और निःशंक भाव से श्रमणधर्म का पालन करना भी दुष्कर है।" -" जैसे भुजाओं से समुद्र को तैरना कठिन है, वैसे ही अनुपशान्त व्यक्ति के द्वारा संयम के सागर को पार करना दुष्कर है।" --- - “ पुत्र ! पहले तू मनुष्य-सम्बन्धी शब्द, रूप आदि पाँच प्रकार के भोगों का भोग कर । पश्चात् भुक्तभोगी होकर धर्म का आचरण करना । " मृगा पुत्र - मृगापुत्र ने माता-पिता को कहा - " आपने जो कहा है, वह ठीक है । किन्तु इस संसार में जिसकी प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । " - " मैंने शारीरिक और मानसिक भयंकर वेदनाओं को अनन्त बार सहन किया है। और अनेक बार भयंकर दुःख और भय भी अनुभव किए हैं। " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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