________________
१९०
उत्तराध्ययन सूत्र
३४. कावोया जा इमा वित्ती
केसलोओ य दारुणो। दुक्खं बम्भवयं घोरं धारेउं य महप्पणो॥
३५. सुहोइओ तुमं पुत्ता !
सुकुमालो सुमज्जिओ। न हु सी पभू तुमं पुत्ता!
सामण्णमणुपालिङ ॥ ३६. जावज्जीवमविस्सामो
गुणाणं तु महाभरो। गुरुओ लोहभारो व्व जो पुत्ता ! होई दुव्वहो॥
___“यह कापोतीवृत्ति अर्थात् कबतर के समान दोषों से सशंक एवं सतर्क रहने की वृत्ति, दारुण केश-लोच और यह घोर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना महान् आत्माओं के लिए भी दुष्कर है।"
-“पुत्र ! तू सुख भोगने के योग्य है, सुकुमार है, सुमज्जित है—साफसुथरा रहता है, अत: श्रामण्य का पालन करने के लिए तू समर्थ नहीं है।" ____“पुत्र ! साधुचर्या में जीवनपर्यन्त कहीं विश्राम नहीं है। लोहे के भार की तरह साधु के गुणों का वह महान् गुरुतर भार है, जिसे जीवन-पर्यन्त वहन करना अत्यन्त कठिन है।" ____जैसे आकाश-गंगा का स्रोत एवं प्रतिस्रोत (जल धारा का प्रतिकूल प्रवाह) दुस्तर है। जिस प्रकार सागर को भुजाओं से तैरना दुष्कर है, वैसे ही गुणोदधि-संयम के सागर को तैरना दुष्कर है।”
–“संयम बालू-रेत के कवल'ग्रास' की तरह स्वाद से रहित है । तप का आचरण तलवार की धार पर चलने-जैसा दुष्कर है।" ____“साँप की तरह एकाग्र दृष्टि से चारित्र धर्म में चलना कठिन है। लोहे के यव-जौ चबाना जैसे दुष्कर है, वैसे ही चारित्र का पालन दुष्कर है।"
३७. आगासे गंग सोउव्व
पडिसोओ व्व दुन्तरो। बाहाहिं सागरो चेव तरियव्वो गुणोयही॥
३८. वालुयाकवले चेव
निररसाए उ संजमे। असिधारागमणं चेव
दुक्करं चरिउं तवो॥ ३९. अहीवेगन्तट्ठिीए
चरित्ते पुत्त! दुच्चरे। जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org