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१९-मृगापुत्रीय
१८९
-“सदा अप्रमत्त भाव से मृषावाद का त्याग करना, हर क्षण सावधान रहते हुए हितकारी सत्य बोलना-बहुत कठिन होता है।"
२७. निच्चकालऽप्पमत्तेणं
मुसावायविवज्जणं। भासियव्वं हियं सच्चं
निच्चाउत्तेणदुक्करं॥ २८. दन्त-सोहणमाइस्स
अदत्तस्स विवज्जणं। अणवज्जेसणिज्जस्स
गेण्हणा अवि दुक्करं ॥ २९. विरई अबम्भचेरस्स
कामभोगरसन्नणा। उग्गं महव्वयं बम्भं
धारेयव्वं सुदुक्करं ।। ३०. धण-अन्न-पेसवग्गेसु
परिग्गहविवज्जणं। सव्वारम्भपरिच्चाओ
निम्ममत्तं सुदुक्करं ।। ३१. चउबिहे वि आहारे
राईभोयणवज्जणा। सन्निहीसंचओ चेव वज्जेयव्वो सुदुक्करो॥
- "दन्तशोधन-दतौन आदि भी बिना दिए न लेना और प्रदत्त वस्तु भी अनवद्य (निर्दोष) और एषणीय ही लेना अत्यन्त दुष्कर है।”
__“काम-भोगों के रस से परिचित व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्ति और उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का धारण करना बहुत दुष्कर है।”
___“धन-धान्य, प्रेष्यवर्ग-दासदासी आदि परिग्रह का त्याग तथा सब प्रकार के आरम्भ और ममत्व का त्याग करना बहुत दुष्कर होता है।"
-“अशन-पानादि चतुर्विध आहार का रात्रि में त्याग करना और काल-मर्यादा से बाहर घृतादि संनिधि का संचय न करना अत्यन्त दुष्कर है।"
३२. छुहा तण्हा य सीउण्ह
दंसमसगवेयणा। अक्कोसा दुक्खसेज्जा य तणफासा जल्लमेव य॥
-“भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों का कष्ट, आक्रोश वचन, दुःख-शय्या-कष्टप्रद स्थान, तृणस्पर्श तथा मैल-"
३३. तालणा तज्जणा चेव
वह-बन्धपरीसहा। दुक्खं भिक्खायरिया जायणा य अलाभया ।
-“ताड़ना, तर्जना, वध और बन्धन, भिक्षा-चर्या, याचना और अलाभ-इन परीषहों को सहन करना दुष्कर है।"
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