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१९-मृगापुत्रीय
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-“यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है, अशुचि से पैदा हुआ है, यहाँ का आवास अशाश्वत है तथा दुःख और क्लेश का स्थान है।"
१३. इमं सरीरं अणिच्चं
असुइं असुइसंभवं। असासयावासमिण दुक्ख-केसाण भायणं ।। असासए सरीरम्मि रइं नोवलभामहं । पच्छा पुरा व चइयव्वे
फेणबुब्बुय-सन्निभे ।। १५. माणुसत्ते असारम्मि
वाही-रोगाण आलए। जरा-मरणपत्थम्मि
खणं पि न रमामऽहं ।। १६. जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं
रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जन्तवो॥ खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पुत्त-दारं च बन्धवा। चइत्ताणं इमं देहं गन्तव्वमवसस्स मे।
___-"इसे पहले या बाद में, कभी छोड़ना ही है। यह पानी के बलबले के समान अनित्य है। अत: इस शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल पा रहा है।"
___“व्याधि और रोगों के घर तथा जरा और मरण से ग्रस्त इस असार मनुष्य-शरीर में एक क्षण भी मुझे सुख नहीं मिल रहा है।"
____“जन्म दुःख है। जरा दुःख है। रोग दुःख है। मरण दुःख है। अहो ! यह समग्र संसार ही दुःखरूप है, जहाँ जीव क्लेश पाते हैं।"
____“क्षेत्र-जंगल की भूमि, वास्तु-घर, हिरण्य-सोना, पुत्र, स्त्री, बन्धुजन और इस शरीर को छोड़कर एक दिन विवश होकर मुझे चले जाना
१८. जहा विम्पागफलाणं
परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुन्दरो॥
--"जिस प्रकार विष-रूप किम्पाक फलों का अन्तिम परिणाम सुन्दर नहीं होता है, उसी प्रकार भोगे हए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता।"
_____“जो व्यक्ति पाथेय (पथ का संबल) लिए बिना लम्बे मार्ग पर चल देता है, वह चलते हुए भूख और प्यास से पीड़ित होता है।"
१९. अद्धाणं जो महन्तं तु
अपाहेओ पवज्जई। गच्छन्तो सो दुही होई छुहा-तण्हाए पीडिओ।
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