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________________ १८६ उत्तराध्ययन सूत्र ६. तं देहई मियापुत्ते मृगापुत्र उस मुनि को अनिमेषदिट्ठीए अणिमिसाए । अपलक दृष्टि से देखता है और सोचता कहिं मन्नेरिसं रूवं है-“मैं मानता हूँ कि ऐसा रूप मैंने दिट्टपुव्वं मए पुरा॥ इसके पूर्व भी कहीं देखा है।” ७. साहुस्स दरिसणे तस्स साधु के दर्शन तथा तदनन्तर अडझवसाणंमि सोहणे। पवित्र अध्यवसाय के होने पर, 'मैंने मोहं गयस्स सन्तस्स ऐसा कहीं देखा है-इस प्रकार जाईसरणं समुप्पन्नं ।। ऊहापोह रूप मोह को प्राप्त मृगापुत्र को जाति-स्मरण उत्पन्न हुआ। देवलोग-चुओ संतो संज्ञिज्ञान अर्थात् समनस्क ज्ञान माणुस्सं भवमागओ। होने पर वह पूर्व-जाति को स्मरण सन्निनाणे समुप्पण्णे करता है—“देवलोक से च्युत होकर मैं जाई सरइ पुराणयं ॥ मनुष्य-भव में आया हूँ।" जाइसरणे समुप्पन्ने जाति-स्मरण उत्पन्न होने पर मियापुत्ते महिड्दिए। महर्द्धिक मृगापुत्र अपनी पूर्व-जाति और सरई पोराणियं जाई पूर्वाचरित श्रामण्य को स्मरण करता सामण्णं च पुराकयं ॥ विसएहि अरज्जन्तो विषयों से विरक्त और संयम में रज्जन्तो संजमम्मि य। अनुरक्त मृगापुत्र ने माता-पिता के अम्मापियरं उवागम्म समीप आकर इस प्रकार कहाइमं वयणमब्बवी॥ मृगापुत्रसुयाणि मे पंच महव्वयाणि . -"मैंने पंच महाव्रतों को सुना नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु । है । सुना है नरक और तिर्यंच योनि में निविण्णकामो मि महण्णवाओ . दुःख है। मैं संसाररूप महासागर से " निर्विण्ण-काम-विरक्त हो गया हूँ। मैं अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो ! ॥ प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा। माता ! मझे अनुमति दीजिए।" १२. अम्मताय ! मए भोगा __ -माता-पिता ! मैं भोगों को भुत्ता विसफलोवमा। भोग चुका हूँ, वे विषफल के समान पच्छा कडुयविवागा अन्त में कटुं बिपाक वाले और निरन्तर अणुबन्ध-दुहावहा॥ दुःख देने वाले हैं।" १०. ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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