________________
१८ - संजयीय
३८. चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिड्डिओ | सन्ती सन्तिकरे लोए पत्तो इत्तरं ॥
३९. इक्खागरायवसभो
कुन्यू नाम नराहिवो । विक्खायकित्ती धिइमं गमणुत्तरं ॥
पत्तो
४०. सागरन्तं
जहित्ताणं
भरहं
नरवरीसरो । अरो य अरयं पत्तो पत्तो गणुत्तरं ॥
४९. चइता भारहं वासं चक्कवट्टी नराहिओ । चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे ॥
४२. एगच्छत्तं पसाहित्ता
महिं माणनिसूरणो । हरिसेणो मणुस्सिन्दो
पत्तो गइमणुत्तरं ॥
४३. अन्निओ रायसहस्सेहिं सुपरिच्चाई दमं चरे । जयनामो जिणक्खायं
पत्तो गइमणुत्तरं ॥
४४. दसण्णरज्जं
मुइयं चइत्ताण मुणी चरे । दसण्णभद्दो निक्खन्तो सक्खं सक्केण चोइओ ॥
Jain Education International
१७९
- " महान् ऋद्धि-संपन्न और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति प्राप्त की ।"
- " इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर, विख्यातकीर्त्ति, धृतिमान् कुन्थुनाथ ने अनुत्तर गति प्राप्त की । "
- " सागरपर्यन्त भारतवर्ष को छोड़कर, कर्म-रज को दूर करके नरेश्वरों में श्रेष्ठ 'अर' ने अनुत्तर गति प्राप्त की । "
- " भारतवर्ष को छोड़कर, उत्तम भोगों को त्यागकर 'महापद्म' चक्रवर्ती ने तप का आचरण किया । "
- " शत्रुओं का मानमर्दन करने वाले हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एकछत्र शासन करके फिर अनुत्तर गति प्राप्त की । "
- " हजार राजाओं के साथ श्रेष्ठ त्यागी जय चक्रवर्ती ने राज्य का परित्याग कर जिन - भाषित दम (संयम) का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की । "
- " साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित होकर दशार्ण - भद्र राजा ने अपने सब प्रकार से प्रमुदित दशार्ण राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि - धर्म का आचरण किया । "
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org