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________________ १७८ उत्तराध्ययन सूत्र ३१. पडिक्कमामि पसिणाणं परमन्तेहिं वा पुणो। अहो उठ्ठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे ।। ____"मैं शुभाशुभसूचक प्रश्नों से और गृहस्थों की मन्त्रणाओं से दूर रहता हूँ। अहो! मैं दिन-रात धर्माचरण के लिए उद्यत रहता हूँ। यह जानकर तुम भी तप का आचरण करो।” ३२. जं च मे पुच्छसी काले सम्मं सुद्धेण चेयसा। ताई पाउकरे बुद्धे तं नाणं जिणसासणे। -"जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे बुद्ध-सर्वज्ञ ने प्रकट किया है। अत: वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान -“धीर पुरुष क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया का त्याग करे । सम्यक् दृष्टि से दृष्टिसंपन्न होकर तुम दुश्चर धर्म का आचरण करो।" ३३. किरियं च रोयए धीरे अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने धम्म चर सुदुच्चरं ।। ३४. एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थ-धम्मोवसोहियं । भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए। ____"अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद (पवित्र उपदेश वचन) को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हुए थे।" -"नराधिप सागर चक्रवर्ती सागर-पर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ कर दया---अर्थात् संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।" ३५. सगरो वि सागरन्तं भरहवासं नराहिवो। इस्सरियं केवलं हिच्चा दयाए परिनिव्वुडे । ३६. चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिड्डिओ। पव्वज्जमब्भुवगओ मघवं नाम महाजसो॥ ३७. सणंकुमारो मणुस्सिन्दो चक्कवट्टी महिड्डिओ। पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं सो वि राया तवं चरे॥ -"महान् ऋद्धि-संपन्न, महान् यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार की।" -"महान् ऋद्धि-संपन्न, मनुष्येन्द्र सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तप का आचरण किया।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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