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उत्तराध्ययन सूत्र
३१. पडिक्कमामि पसिणाणं
परमन्तेहिं वा पुणो। अहो उठ्ठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे ।।
____"मैं शुभाशुभसूचक प्रश्नों से और गृहस्थों की मन्त्रणाओं से दूर रहता हूँ। अहो! मैं दिन-रात धर्माचरण के लिए उद्यत रहता हूँ। यह जानकर तुम भी तप का आचरण
करो।”
३२. जं च मे पुच्छसी काले
सम्मं सुद्धेण चेयसा। ताई पाउकरे बुद्धे तं नाणं जिणसासणे।
-"जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल के विषय में पूछ रहे हो, उसे बुद्ध-सर्वज्ञ ने प्रकट किया है। अत: वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान
-“धीर पुरुष क्रिया में रुचि रखे और अक्रिया का त्याग करे । सम्यक् दृष्टि से दृष्टिसंपन्न होकर तुम दुश्चर धर्म का आचरण करो।"
३३. किरियं च रोयए धीरे
अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने
धम्म चर सुदुच्चरं ।। ३४. एयं पुण्णपयं सोच्चा
अत्थ-धम्मोवसोहियं । भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए।
____"अर्थ और धर्म से उपशोभित इस पुण्यपद (पवित्र उपदेश वचन) को सुनकर भरत चक्रवर्ती भारतवर्ष और कामभोगों का परित्याग कर प्रव्रजित हुए थे।"
-"नराधिप सागर चक्रवर्ती सागर-पर्यन्त भारतवर्ष एवं पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ कर दया---अर्थात् संयम की साधना से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।"
३५. सगरो वि सागरन्तं
भरहवासं नराहिवो। इस्सरियं केवलं हिच्चा
दयाए परिनिव्वुडे । ३६. चइत्ता भारहं वासं
चक्कवट्टी महिड्डिओ। पव्वज्जमब्भुवगओ
मघवं नाम महाजसो॥ ३७. सणंकुमारो मणुस्सिन्दो
चक्कवट्टी महिड्डिओ। पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं सो वि राया तवं चरे॥
-"महान् ऋद्धि-संपन्न, महान् यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार की।"
-"महान् ऋद्धि-संपन्न, मनुष्येन्द्र सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तप का आचरण किया।"
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