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१८-संजयीय
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२५. पडन्ति नरए घोरे
जे नरा पावकारिणो। दिव्वं च गई गच्छन्ति
चरित्ता धम्ममारियं। २६. मायावुइयमेयं तु
मुसाभासा निरस्थिया संजममाणो वि अहं वसामि इरियामि य॥
२७. सव्वे ते विइया मज्झं
मिच्छादिट्ठी अणारिया। विज्जमाणे परे लोए
सम्मं जाणामि अप्पगं ॥ २८. अहमासी महापाणे
जुइमं वरिससओवमे। जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिससओवमा ।।
-"जो मनुष्य पाप करते हैं, वे घोर नरक में जाते हैं। और जो आर्यधर्म का आचरण करते हैं, वे दिव्य गति को प्राप्त करते हैं।"
___“यह क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का सब कथन मायापूर्वक है, अत: मिथ्या वचन है, निरर्थक है। में इन मायापूर्ण वचनों से बचकर रहता हूँ, बचकर चलता हूँ।"
____“वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य हैं। मैं परलोक में रहते हुए अपने को अच्छी तरह से जानता हूँ ।”
-“मैं पहले महाप्राण नामक विमान में वर्ष शतोपम आयु वाला द्युतिमान् देव था। जैसे कि यहाँ सौ वर्ष की आयु पूर्ण मानी जाती है, वैसे ही वहाँ पाली—पल्योपम एवं महापाली-सागरोपम की दिव्य आयु पूर्ण है।" ___-"ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्य भव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की आयु को भी जानता
२९. से चुए बम्भलोगाओ
माणुस्सं भवमागए। अप्पणो य परेसिंच आउं जाणे जहा तहा॥
३०. नाणारुइं च छन्दं च
परिवज्जेज्ज संजए। अणट्ठा जे य सव्वत्था इइ विज्जामणुसंचरे ॥
___-"नाना प्रकार की रुचि और छन्दों का- अर्थात् मन के विकल्पों, का, तथा सब प्रकार के अनर्थक व्यापारों का संयतात्मा मुनि को सर्वत्र परित्याग करना चाहिए। इस तत्त्वज्ञानरूप विद्या का संल्क्ष्य कर संयमपथ पर संचरण करे।"
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