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________________ १७६ उत्तराध्ययन सूत्र राज्य को छोड़कर वह संजय राजा भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिनशासन में दीक्षित हो गया। १९. संजओ चइडं रज्जं निक्खन्तो जिणसासणे। गद्दभालिस्स भगवओ । अणगारस्स अन्तिए ।। चिच्चा रटुं पव्वइए खत्तिए परिभासइ। जहा ते दीसई रूवं पसन्नं ते तहा मणो॥ राष्ट्र को छोड़कर प्रव्रजित हुए क्षत्रिय मुनि ने एक दिन संजय मुनि को कहा-“तुम्हारा यह रूप (बाह्य आकार) जैसे प्रसन्न (निर्विकार) है, लगता है-वैसे ही तुम्हारा अन्तर्मन भी प्रसन्न २१. किंनामे? किंगोत्ते? कस्सट्ठाए व माहणे? कहं पडियरसी बुद्ध? कहं विणीए त्ति वुच्चसि? क्षत्रिय मुनि "तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा गोत्र क्या है ? किस प्रयोजन से तुम महान् मुनि बने हो? किस प्रकार आचार्यों की सेवा करते हो? किस प्रकार विनीत कहलाते हो?" संजय मनि____“मेरा नाम संजय है। मेरा गोत्र गौतम है। विद्या और चरण के पारगामी 'गर्दभालि' मेरे आचार्य हैं।" २२. संजओ नाम नामेणं तहा गोत्तण गोयमो। गद्दभाली ममायरिया विज्जाचरणपारगा ॥ २३. किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणं च महामुणी! एएहिं चउहि ठाणहिं मेयन्ने किं पभासई॥ क्षत्रिय मनि —“हे महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान-इन चार स्थानों के द्वारा कुछ एकान्तवादी मेयज्ञ अर्थात् तत्त्ववेत्ता असत्य तत्त्व की प्ररूपणा करते हैं।” –“बुद्ध-तत्त्ववेत्ता, परिनिर्वृतउपशान्त, विद्या और चरण से संपन्न, सत्यवाक् और सत्यपराक्रमी ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने ऐसा प्रकट किया है।" २४. इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुडे। विज्जा-चरणसंपन्ने सच्चे सच्चपरक्कमे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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