SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८-संजयीय १७५ १२. जया सव्वं परिच्चज्ज गन्तव्वमवसस्स ते। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि? १३. जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपाय - चंचलं। जत्थ तं मुझसी रायं! पेच्चत्यं नावबुज्झसे ।। ___-"सब कुछ छोड़कर जब तुझे यहाँ से अवश्य लाचार होकर चले जाना है, तो इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?" ___-“राजन् ! तू जिसमें मोहमुग्ध है, वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक की तरह चंचल है। तू अपने परलोक के हित को नहीं समझ रहा १४. दाराणि य सुया चेव मित्ता य तह बन्धवा। जीवन्तमणुजीवन्ति मयं नाणुव्वयन्ति य॥ १५. नीहरन्ति मयं पुत्ता पियरं परमदुक्खिया। पियरो वि तहा पुत्ते बन्धू रायं ! तवं चरे॥ ___"स्त्रियाँ, पुत्र, मित्र तथा बन्धुजन जीवित व्यक्ति के साथ ही जीते हैं। कोई भी मृत व्यक्ति के पीछे नहीं जाता है-अर्थात् मरे के साथ कोई नहीं मरता है।" -“अत्यन्त दु:ख के साथ पुत्र अपने मृत पिता को घर से बाहर श्मशान में निकाल देते हैं। उसी प्रकार पुत्र को पिता और बन्धु को अन्य बन्धु भी बाहर निकालते हैं। अत: राजन् ! तू तप का आचरण कर ।” -“मृत्यु के बाद उस मृत व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन का तथा सुरक्षित स्त्रियों का हृष्ट, तुष्ट एवं अलंकृत होकर अन्य लोग उपभोग करते हैं।" -“जो सुख अथवा दुःख के कर्म जिस व्यक्ति ने किए हैं, वह अपने उन कर्मों के साथ परभव में जाता है।" १६. तओ तेणऽज्जिए दव्वे दारे य परिरक्खिए। कीलन्तऽन्ने नरा रायं! हट्ठ-तुट्ट-मलंकिया ॥ १७. तेणावि जं कयं कम्म सुहं वा जइ वा दुहं। कम्मुणा तेण संजुत्तो गच्छई उ परं भवं ।। १८. सोऊण तस्स सो धम्म अणगारस्स अन्तिए। महया संवेगनिव्वेयं समावन्नो नराहिवो॥ अनगार के पास से महान् धर्म को सुनकर, राजा मोक्ष का अभिलाषी और संसार से विमुख हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy