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उत्तराध्ययन सूत्र
६.
अह आसगओ राया खिप्पमागम्म सो तहि। हए मिए उ पासित्ता अणगारं तत्थ पासई ।। अह राया तत्थ संभन्तो अणगारो मणाऽऽहओ। मए उ मन्द-पुण्णेणं रसगिद्धेण धन्तुणा ।।
आसं विसज्जइत्ताणं अणगारस्स सो निवो। विणएण वन्दए पाए भगवं! एत्थ मे खमे ॥
अह मोणेण सो भगवं अणगारे झाणमस्सिए। रायाणं न पडिमन्तेइ तओ राया भयहुओ।
अश्वारूढ़ राजा शीघ्र वहाँ आया. जहाँ मनि ध्यानस्थ थे। मृत हिरणों को देखने के बाद उसने वहाँ एक ओर अनगार को भी देखा।
राजा मनि को देखकर सहसा भयभीत हो गया। उसने सोचा-“मैं कितना मन्दपुण्य-भाग्यहीन, रसासक्त एवं हिंसक वृत्ति का हूँ, कि मैंने व्यर्थ ही मुनि को आहत किया है।" ___घोड़े को छोड़कर उस राजा ने विनयपूर्वक अनगार के चरणों को वन्दन किया और कहा कि“भगवन् ! इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें।"
वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान में लीन थे। उन्होंने राजा को कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया, अत: राजा
और अधिक भयद्रुत-भयाक्रान्त हुआ।
राजा
- "भगवन् ! मैं संजय हूँ। आप मुझ से कुछ तो बोलें। मैं जानता हूँ-क्रुद्ध अनगार अपने तेज से करोड़ों मनुष्यों को जला डालते हैं।”
अनगार___“पार्थिव ! तुझे अभय है। पर, तू भी अभयदाता बन। इस अनित्य जीवलोक में तू क्यों हिंसा में संलग्न है?”
१०. संजओं अहमस्सीति
भगवं! वाहराहि मे। कुद्धे तेएण अणगारे डहेज नरकोडिओ॥
११. अभओ पत्थिवा! तुब्भं
अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि?
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