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उत्तराध्ययन सूत्र
१६. अस्थन्तम्मि य सूरम्मि
आहारेइ अभिक्खणं। चोइओ पडिचोएड पावसमणे त्ति वुच्चई ।।
१७. आयरियपरिच्चाई
परपासण्डसेवए। गणंगणिए दुब्भूए पावसमणे त्ति वुच्चई ॥
१८. सयं गेहं परिचज्ज
परगेहंसि वावडे । निमित्तेण य ववहरई पायसमणे ति वुच्चई।।
जो सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बार-बार खाता रहता है, जो समझाने पर उलटा पड़ता है-अर्थात् शिक्षक गुरु को ही उपदेश झाड़ने लगता है, वह पापश्रमण कहलाता है। __जो अपने आचार्य का परित्याग कर अन्य पाषण्ड-मतपरम्परा को स्वीकार करता है, जो गाणंगणिक होता है-अर्थात् छह मास की अल्प अवधि में ही एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है, वह दुर्भूत-निन्दित पापश्रमण कहलाता है। ___ जो अपने घर (गृहकार्य) को छोड़कर परघर में व्याप्त होता है-दूसरों की घर गृहस्थी के धन्धों में लग जाता है, जो शुभाशुभ बतलाकर द्रव्यादिक उपार्जन करता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
जो अपने ज्ञातिजनों से-पूर्व परिचित स्वजनों से आहार ग्रहण करता है, सभी घरों से सामुदायिक भिक्षा नहीं चाहता है, गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
जो इस प्रकार आचरण करता है, वह पार्श्वस्थादि पाँच कुशील भिक्षुओं के समान असंवृत है, केवल मुनिवेष का ही धारक है, श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है। वह इस लोक में विष की तरह निन्दनीय होता है, अत: न वह इस लोक का रहता है, न परलोक का।
१९.
सन्नाइपिण्डं जेमेइ नेच्छई सामुदाणियं । गिहिनिसेज्जं च वाहेइ पावसमणे त्ति वुच्चई ।।
२०. एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे
रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे। अयंसि लोए विसमेवगरहिए न से इहं नेव परत्थ लोए।
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