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१७-पाप-श्रमणीय
२१. जे वज्जए एए सया उ दोसे
से सुव्वए होइ मुणीण मज्झे। अयंसि लोए अमयं व पूइए आराहए लोगमिणं तहावरं ॥
जो साधु इन दोषों को सदा दूर करता है, वह मुनियों में सुव्रत होता है। वह इस लोक में अमृत की तरह पूजा जाता है। अत: वह इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकों की आराधना करता है।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
-त्ति बेमि।
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