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________________ १७-पाप-श्रमणीय १६७ १०. पडिलेहेइ पमत्ते से किंचि हु निसामिया। गुरुं परिभावए निच्चं पावसमणे ति वुच्चई। ११. बहुमाई . पमुहरे थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते पावसमणे त्ति वुच्चई॥ १२. विवादं च उदीरेइ अहम्मे अत्तपन्नहा। वुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणे त्ति वुच्चई॥ जो इधर-उधर ही बातों को सुनता हुआ प्रमत्तभाव से प्रतिलेखन करता है, जो गुरु की अवहेलना करता है, वह पापश्रमण कहलाता है। - जो बहुत मायावी है, जो वाचाल है, जो स्तब्ध-धीठ है, लोभी है, जो अनिग्रह है-अर्थात् इन्द्रिय एवं मन पर उचित नियन्त्रण नहीं रखता है, जो प्राप्त वस्तुओं का परस्पर संविभाग नहीं करता है, जिसे गुरु के प्रति प्रेम नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। जो शान्त हुए विवाद को पुन: उखाड़ता है, जो अधर्म में अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, जो कदाग्रह (विग्रह) तथा कलह में व्यस्त है, वह पापश्रमण कहलाता है। जो स्थिरता से नहीं बैठता है, जो हाथ-पैर आदि को चंचल एवं विकृत चेष्टाएँ करता है, जो जहाँ-तहाँ बैठ जाता है, जिसे आसन पर बैठने का उचित विवेक नहीं है, वह पापश्रमण कहलाता है। जो रज (सचित्त धूल) से लिप्त पैरों से सो जाता है, जो शय्या का प्रमार्जन नहीं करता है, संस्तारकबिछौने के विषय में असावधान होता है, वह पापश्रमण कहलाता है। ___ जो दूध, दही आदि विकृतियाँ बार-बार खाता है, जो तप-क्रिया में रुचि नहीं रखता है, वह पापश्रमण कहलाता है। १३. अथिरासणे कुक्कुईए जत्थ तत्थ निसीयई। आसणम्मि अणाउत्ते पावसमणे त्ति वुच्चई। १४. ससरक्खपाए सुबई सेज्जं न पडिलेहइ। संथारए अणाउत्ते। पावसमणे त्ति वुच्चई॥ १५. दुद्ध-दहीविगईओ आहारेइ अभिक्खणं। अरए य तवोकम्मे पावसमणे त्ति वुच्चई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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