SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ उत्तराध्ययन सूत्र ४. आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए। ते चेव खिसई बाले पावसमणे त्ति वुच्चई ।। जिन आचार्य और उपाध्यायों से श्रुत (विचार) और विनय (आचार) ग्रहण किया है, उन्हीं की निन्दा करता है, वह बाल-अर्थात् विवेकभ्रष्ट पापश्रमण कहलाता है। जो आचार्य और उपाध्यायों की चिन्ता (सेवा आदि का ध्यान) नहीं करता है, अपितु उनका अनादर करता है, जो ढीठ है, वह पापश्रमण कहलाता आयरिय-उवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पइ। अप्पडिपूयए थद्धे पावसमणे ति वुच्चई॥ ६. सम्मइमाणे पाणाणि बीयाणि हरियाणि य। असंजए संजयमन्नमाणे पावसमणे त्ति वुच्चई ।। ७. संथारं फलगं पीढं निसेजं पायकम्बलं। अप्पमज्जियमारुहइ पावसमणे त्ति वुच्चई। जो प्राणी (द्वीन्द्रिय आदि जीव), बीज और वनस्पति का संमर्दन करता रहता है, जो असंयत होते हुए भी स्वयं को संयत मानता है, वह पापश्रमण कहलाता है। जो संस्तारक—बिछौना, फलकपाट, पीठ-आसन, निषद्यास्वाध्यायभूमि और पादकम्बलपादपुंछन का प्रमार्जन किए बिना ही उन पर बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है। जो जल्दी-जल्दी चलता है, जो पुन:-पुन: प्रमादाचरण करता रहता है, जो मर्यादाओं का उल्लंघन करता है, जो क्रोधी है, वह पापश्रमण कहलाता ८. दवदवस्स चरई पमत्ते य अभिक्खणं।। उल्लंघणे य चण्डे य पावसमणे त्ति वुच्चई ।। पडिलेहेइ पमत्ते उवउज्झइ पायकम्बलं। पडिलेहणाअणाउत्ते पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ जो प्रमत्त-असावधान होकर प्रतिलेखन करता है, जो पात्र और कम्बल जहाँ-तहाँ रख देता है, जो प्रतिलेखन में अनायुक्त-असावधान रहता है, वह पापश्रमण कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy