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उत्तराध्ययन सूत्र
३.
ब्रह्मचर्य में रत भिक्ष स्त्रियों के साथ परिचय तथा बार-बार वार्तालाप का सदा परित्याग करे।
समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं। बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए। अंगपच्चंग-संठाणं चारुल्लविय-पेहियं। बंभचेररओ थीणं चक्खुगिझं विवज्जए॥
ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु चक्षु-इन्द्रिय से गाह्य स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, संस्थान-आकार, बोलने की सुन्दर मुद्रा, तथा कटाक्ष को देखने का परित्याग करे।
कुइयं रुइयं गीयं हसियं थणिय-कन्दियं। बंभचेररओ थीणं सोयगिझं विवज्जए।
ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन न सुने ।
हासं कि९ रइं दप्पं सहसाऽवत्तासियाणि य। बम्भचेररओ थीणं नाणुचिन्ते कयाइ वि॥
ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, दीक्षा से पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास का कभी भी अनुचिन्तन न करे ।
पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्वणं बम्भचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए।।
ब्रह्मचर्य में रत भिक्ष, शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत आहार का सदा-सदा परित्याग करे।
धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं। नाइमत्तं तु भुंजेज्जा बम्भचेररओ सया॥
ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु चित्त की स्थिरता के लिए, जीवन-यात्रा के लिए उचित समय में धर्म-मर्यादानुसार प्राप्त परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक ग्रहण न करे।
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