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१६-ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान
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ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु विभूषा का त्याग करे । श्रृंगार के लिए शरीर का मण्डन न करे।
शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श--इन पाँच प्रकार के कामगुणों का सदा त्याग करे।
९. विभूसं परिवज्जेज्जा
सरीरपरिमण्डणं। बम्भचेररओ भिक्खू
सिंगारत्थं न धारए।। १०. सद्दे रूवे य गन्धे य
रसे फासे तहेव य। पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए। आलओ थीजणाइण्णो थीकहा य मणोरमा। संथवो चेव नारीणं
तासिं इन्दियदरिसणं॥ १२. कुइयं रुइयं गीयं
हसियं भुतासियाणि य। पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं॥
११.
(१) स्त्रियों से आकीर्ण स्थान, (२) मनोरम स्त्री-कथा, (३) स्त्रियों का परिचय, (४) उनकी इन्द्रियों को देखना, (५) उनके कूजन, रोदन, गीत और
हास्ययुक्त शब्दों का सुनना, (६) भुक्त भोगों और सहावस्थान
को स्मरण करना, (७) प्रणीत (पौष्टिक) भोजन-पान, (८) मात्रा से अधिक भोजन पान, (९) शरीर को सजाने की इच्छा, (१०) दुर्जय काम भोग-ये दस
आत्म-गवेषक मनुष्य के लिए तालपुट विष के समान
१३. गत्तभूसणमिटुं च
कामभोगा य दुज्जया। नरस्सऽत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा ।।
एकाग्रचित्त वाला मुनि दुर्जय । कामभोगों का सदैव त्याग करे और सब प्रकार के शंका-स्थानों से दूर रहे।
१४. दुज्जए कामभोगे य
निच्चसो परिवज्जए। संकट्ठाणाणि सव्वाणि
वज्जेज्जा पणिहाणवं॥ १५. धम्माराम चरे भिक्खू
धिइमं धम्मसारही। धम्मारामरए दन्ते बम्भचेर - समाहिए।
जो धैर्यवान है, जो धर्मरथ का चालक सारथि है, जो धर्म के आराम में रत है, जो दान्त है, जो ब्रह्मचर्य में सुसमाहित है, वह भिक्षु धर्म के आराम (बाग) में विचरण करता है।
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