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१६-ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान
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सूत्र १२-नो सह-रूव-रस-गन्ध- जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और फासाणुवाई हवइ,
स्पर्श में आसक्त नहीं होता है, वह से निग्गन्थे।
निर्ग्रन्थ है। तं कहमिति चे? ऐसा क्यों? आयरियाह निग्गन्थस्स खलु
आचार्य कहते हैं—जो शब्द, रूप, सहरूवरसगन्धफासाणुवाइस्स रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त रहता बम्भयारिस्स बम्भचेरे
है, उस ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, संका वा, कंखा वा,
कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, वितिगिच्छा वा समुष्पज्जिज्जा, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, भेयं वा लभेज्जा,
अथवा उन्माद पैदा होता है, अथवा उम्मायं वा पाउणिज्जा
दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, अथवा वह केवली प्ररूपित धर्म से केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ
भ्रष्ट हो जाता है। अत: निर्ग्रन्थ शब्द, भंसेज्जा!
रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न तम्हा खलु नो निग्गन्थे
बने। सहरूवरसगन्धफासाणुवाई हविज्जा। यह ब्रह्मचर्य समाधि का दसवाँ दसमे बम्भचेरसमाहिठाणे हवइ।। स्थान है।
भवन्ति इत्थ सिलोगा, तंजहा
यहाँ कुछ श्लोक हैं, जैसे
१. जं विवित्तमणाइण्णं
रहियं थीजणेण य। बम्भचेरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेवए।
ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए संयमी एकान्त, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित स्थान में रहे।
मणपल्हायजणणिं कामरागविवड्डणि। बंभचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए।।
ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में आह्लाद पैदा करने वाली तथा कामराग को बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का त्याग करे।
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