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अइमाया पाणभोयणं आहारेमाणस्स, बम्भयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा,
उम्मायं वा पाउणिज्जा,
दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपन्नताओ वा धम्माओ भंसेज्जा ! तम्हा खलु नो
निग्गन्थे अइमायाए पाणभोयणं भुंजिज्जा |
सूत्र ११ – नो विभूसाणुवाई
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हवाइ से निग्गन्थे ।
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तं कहमिति चे ?
आयरियाहविभूसावत्तिए, विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स अभिलसणिज्जे हवइ ! तओ णं तस्स इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा,
उम्मायं वा पाउणिज्जा,
दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओभंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे विभूसाणुवाई सिया ।
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उत्तराध्ययन सूत्र
अधिक खाता-पीता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अत: निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक न खाए, न पीए ।
जो विभूषानुपाती नहीं होता है, अर्थात् शरीर की विभूषा नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है ।
ऐसा क्यों ?
आचार्य कहते हैं— जिसकी मनोवृत्ति विभूषा करने की होती है, वह शरीर को सजाता है, फलतः उसे स्त्रियाँ चाहती हैं । अतः स्त्रियों द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा, या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा वह केवल प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ विभूषानुपात न बने ।
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